उरांव जनजाति में एक अनोखा त्योहार प्रचलित है जो बारह सालों के अंतराल पर मनाया जाता है। इस समाज की जनी (औरतें) पुरुषों का वेश धारण कर शिकार में प्रयुक्त होने वाले हथियारों से लैस होकर जंगलो (अब जंगल के खत्म होने पर गाँव के गली मोहल्लों) में समूह में शिकार के लिए निकलती हैं। वे जानवरों का शिकार करती हैं और रात में उन्हें पका कर सामूहिक भोज करती हैं और उत्सव मनाती है। ये त्योहार झारखंड, छत्तीसगढ़ तथा ओड़ीसा के उन भागो में धूमधाम से मनाया जाता है जहाँ उरांव जनजाति के लोग रहते है। असल में यह पर्व उन आदिवासी महिलाओं की बहादुरी को सम्मान देने के लिए मनाया जाता है जिन्होंने अपने पुरुषों के नाकाम होने पर खुद हथियार उठाया था तथा दुश्मनों से अपने किले की रक्षा की थी। जनी शिकार पर्व में महिलाओं के ताकत, क्षमता और हौसले की झलक मिलती है। ऐसी मान्यता है कि रोहतासगढ़ का किला राजा हरिशचंद के बेटे रोहितास ने बनवाया था। मध्यकाल में यह किला और आसपास के घने जंगल उरांव जनजाति के लोगों के कब्जे में था। आज से करीब 400 साल पहले मुगल आक्रमणकारियों और कुछ देशी राजाओं ने भी इस किले को हासिल करने का प्रयास किया लेकिन इन जनजातियों के विरोध एवं प्रतिरोध के कारण असफल रहे। कई बार असफल रहने पर मुगल राजाओं ने इस किले को हासिल करने के लिए एक चाल चली। उन्होंने अपने गुप्तचरों को यहाँ भेजा। उन्होंने यहाँ के लोगों के जीवन- शैली का अध्ययन करने के बाद यह सलाह दी की इस जनजाति के लोग अपने पर्व त्यौहार पर हड़िया (चावल से बनने वाला पेय पदार्थ जिससे नशा होता है) का सेवन कर मस्त हो जाते हैं। अगर उस समय आक्रमण किया जाए तो ये लोग लड़ने में सक्षम नही होंगे और हमारी जीत होगी। अंत में सरहुल पर्व के दौरान रात में जब सारे मर्द हड़िया पीकर सो रहे थे, मुगल सेनाओं ने किले पर आक्रमण किया। अपनी निश्चित हार देखकर उरांव मर्द और औरतों में खलबली मच गई। तब उरांव राजा की बहादुर बेटी सिगनी दई सामने आई। उसने सभी औरतों को मर्दों का वेश धारण करने एवं हथियार लेकर दुश्मनों पर आक्रमण करने का आदेश दिया। उसके नेतृत्व में भयंकर युद्ध हुआ। मुगल सेना को इसकी अपेक्षा नहीं थी और उन्हें पीछे हटना पड़ा। कहा जाता है कि तीन बार इन आक्रमणकारियों को इन महिलाओं की फौज ने धूल चटाई और बारह वर्षों तक अपने किले की रक्षा की। पर चौथे आक्रमण में उनकी हार हुई और इस जनजाति के लोग वहाँ से पलायन कर राँची और उसके आसपास के इलाकों में आकर बस गए। इसीलिए ये पर्व बारह वर्षों में एक बार मनाया जाता है। आज न तो जंगल बचे हैं न ही जानवर, अतः यह पर्व सांकेतिक ही रह गया है। अब जनी शिकारियों का ग्रुप गली मुहल्लों में घूम रहे आवारा बकरे और मुर्गे का शिकार करती हैं। घर में बँधे जानवरों का शिकार वर्जित है। ये आदिवासी लोग स्वभाव से सरल एवं सादगी पसंद होते हैं। इनका यह भी मानना है कि जनी शिकार के बाद गाँव से बुरी आत्माओं का साया दूर चला जाता है और इसी कारण उनके परिजन बीमार और दुखी नहीं होते। इस शिकार में महिलाएं गाँव के पूरब दिशा से शिकार शुरू करती है और अलग-अलग दल पश्चिम की तरफ बढ़ती है। आज के समय में आपस मे बैठक कर पर्व मनाने के लिए कुछ बातों पर सहमति बनाई जाती है ताकि आपस में किसी तरह का संघर्ष ना हो। गाँव का प्रतिनिधि या कोटवार गांव वालों को यह सूचना दे देता है कि अमुक समय में अमुक गाँव के दल हमारे गाँव में आ रहा है अतः उस गाँव के लोग आने वाले दल का स्वागत करते हैं। जिस गाँव में शिकार के लिए जाते है वहाँ यह प्रयास रहता है कि ज्यादा जानवरों को नहीं मारा जाए और एक या दो शिकार लेकर वहाँ से लौट आया जाए। आज के समय में जब हम अपनी संस्कृति अपनी परंपराएं अपनी वेशभूषा और अपनी मान्यताएं भूल रहे हैं, उरांव जनजाति के लोगों के द्वारा अपने परंपरा को बचाए रखने का यह प्रयास सचमुच न सिर्फ सुखद है बल्कि प्रेरणादायक भी है। किशोरी रमण
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Yes, we should preserve our old tradition..
Thanks for sharing your information.
Very nice...