
ईशा के बाद के पहली शताब्दी में एक महान बौद्ध भिक्षु हुए थे जिनका नाम था नागार्जुन। वे न सिर्फ़ बौद्ध मत के महायान परम्परा के प्रमुख भिक्षु थे बल्कि शून्यवाद एवम मध्यम मार्ग के स्थापितकर्ता भी थे। आज की कहानी उन्ही से सम्बन्धित है।
भिक्षु नागार्जुन एक गांव से गुजर रहे थे। वे लगभग नग्न थे। हांथ में लकड़ी का भिक्षा पात्र था। ग्राम प्रधान की पत्नी ने उन्हें आमंत्रित किया। वह जब उसके द्वार पर आए तो उस स्त्री ने उनके चरण स्पर्श करते हुए कहा, यह भिक्षा पात्र आप मुझे दे दें। आपकी यादगार के तौर पर इसे मैं अपने पास रखूंगी। फिर उसने वह लकड़ी का भिक्षा पात्र लेकर उन्हे उसके बदले स्वर्ण पात्र देते हुए उसे स्वीकारने का आग्रह किया। नागार्जुन ने कहा, जैसी आपकी इक्षा। और वे स्वर्ण पात्र को लेकर अपने मार्ग पर आगे बढ़ चले।
वस्त्रहीन भिक्षु के हाथो में स्वर्ण पात्र को देखकर सारे गांव के लोग अचंभित थे। उस गांव में एक चोर रहता था। जब उसने इस भिक्षु के हाथ में स्वर्ण पात्र देखा तो उसके मन में लालच आ गया। उसने सोचा, भला यह स्वर्ण पात्र कब तक इस भिक्षु के पास रह सकेगा। कोई न कोई तो इसे उड़ा ही ले जायेगा तो मैं ही क्यों न इसे उड़ा लूं ? वह नागार्जुन के पीछे लग गया। कदमों की चाप सुन नागार्जुन सब समझ गए।गांव के बाहर एक खंडहर था। दोपहर की बेला और तेज धूप थी। आराम करने के लिए नागार्जुन उसी खंडहर में ठहरे। चोर भी वहीं एक खिड़की के पास छुप कर बैठ गया। नागार्जुन ने सोचा, अब मेरे सोने का समय हुआ। मेरे सोते ही स्वर्ण पात्र बाहर बैठा व्यक्ति ले ही जायेगा तो अकारण उसे चोर बनने का मौका क्यों दूं ? इस स्वर्ण पात्र को फेंक देता हूं ताकि उसे बहुत देर तक धूप में बैठना नही पड़े।
नागार्जुन ने खिड़की से स्वर्ण पात्र बाहर फेंक दिया। पात्र चोर के पास आकर गिरा। वह आश्चर्य से भर गया। इतना मूल्यवान पात्र इस भिक्षु ने भला कैसे फेंक दिया ? वह नागार्जुन से खिड़की से ही बोला, मैं आपका धन्यवाद करता हूं। आश्चर्य है कि जिसे मैं चुराने आया था उसे आपने फेंक दिया।
इसपर नागार्जुन ने कहा ..तुम्हे चोर बनाने का पाप में लेने को तैयार नहीं हूं। फिर इस चिलचिलाती धूप में तुम मेरे सोने की प्रतीक्षा करते रहो, यह भी मुझे मंजूर नहीं। तुम इसे ले जाओ।
चोर ने कल्पना में भी नही सोंचा था कि एक चोर के प्रति भी कोई व्यक्ति इतना करुण होगा। उस चोर ने कहा, आपकी बड़ी कृपा होगी अगर दो घड़ी अपने पास बैठने की आज्ञा दे।
नागार्जुन ने कहा, मैने पात्र फेंका ही इसलिए, ताकि तुम भीतर आ सको। तुम भीतर मेरे पास आ जाओ।
चोर ने नागार्जुन से कहा, क्या ऐसा दिन मेरे जीवन में भी आएगा कि स्वर्ण पात्र को मैं यूं मिट्टी के वर्तन की तरह फेंक दूं ?
नागार्जुन ने कहा, आज और अभी आ सकता है। इसीलिए मैं चाहता था कि तू भीतर आए और मैं तुझे स्मरण करा सकूं कि असली खजाना तो तुम अपने भीतर लिए घूम रहे हो। मेरे बस होता तो वह खजाना भी मैं तुम्हे दे देता। लेकिन वह दिया नही जा सकता है। वह तुम्हे स्वयं अपने भीतर खोजना होगा। मैं बस उसका मार्ग दिखला सकता हूं
चोर ने उसी क्षण स्वर्ण पात्र को बाहर फेंका और नागार्जुन का शिष्य हो गया।
किशोरी रमण
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Very nice story.
बहुत सुंदर और शिक्षाप्रद कहानी।
Very nice.