प्राचीन यूनान में एक महान दार्शनिक हुए है जिनका नाम था सुकरात। वे दिखने में बहुत कुरूप थे। एक दिन वह बैठे हुए अपने हाथ में आईना लिए हुए अपना चेहरा देख रहे थे। तभी उनका एक शिष्य कमरे में आया। सुकरात को आईना देखते हुए देख कर उसे कुछ अजीब सा लगा। वह मन ही मन सोचने लगा, गुरु जी इतने ज्ञानी होते हुए ये नही समझ रहे हैं कि कुरूप व्यक्ति को दर्पण देखने की जरूरत नही है। और यदि वे वैसा कर रहे हैं तो क्या मुझे उनको अपना गुरु स्वीकार करना चाहिए ?
वह शिष्य यह सब सोच ही रहा था कि सुकरात ने उसे असमंजस की स्थिति में देखकर उससे कहा- मैं तुम्हारे असमंजस का कारण समझ रहा हूँ। शायद तुम सोच रहे हो कि मुझ जैसा कुरूप आदमी आईना क्यों देख रहा है ? और साथ ही यह भी सोच रहे होगे कि तुमने मुझे अपना गुरु बनाकर कोई भूल तो नहीं की। इससे शिष्य अचंभित हो गया। उसने शर्म से अपना सिर झुका लिया। अब सुकरात ने बोलना शुरू किया। मन में आए संशय को अपने गुरु के समक्ष अवश्य व्यक्त करना चाहिए। क्योंकि गुरु एक वैद होता है। यदि तुम उनके समक्ष अपने प्रश्नों को नही रखोगे, अपने मानसिक स्थिति को व्यक्त नहीं करोगे तो वह तुम्हारे मन का उपचार कैसे करेगा ? शिष्य ने कहा, आप तो अंतर्यामी है गुरुदेव अतः मुझसे क्यों बुलवाते हैं ?
सुकरात ने मुस्कुराते हुए कहा- तुम यही सोच रहे हो ना कि मैं कुरूप हो कर भी आईना क्यों देख रहा हूँ ? मैं कुरूप हूँ इसलिए रोज आईना देखता हूँ क्योंकि आईना देख कर मुझे अपनी शारीरिक कुरूपता का भान हो जाता है। फिर मैं अपने इस कुरूपता को अपने अच्छे कर्मों से संतुलित करने के लिए हर रोज कोशिश करता हूँ कि मैं इतने अच्छे काम करूँ कि मेरी शारीरिक कुरूपता की जगह लोगों को मेरा व्यवहार और मेरे शुभ कर्मों का सौंदर्य नजर आए।
इसपर शिष्य ने पूछा - परंतु गुरुदेव, इस कृत्य को रोज करने की क्या आवश्यकता है ? इसपर सुकरात ने कहा, आवश्यकता है वत्स। मनुष्य की स्मरणशक्ति बहुत कम होती है। यदि मैं प्रतिदिन अपने कुरूपता का स्मरण नहीं करुँगा तो नित्य शुभ कार्य करना भी भूल जाऊँगा।
हे गुरुदेव, आपकी यह बात तो मेरी समझ में आ गई। पर एक शंका और है जो आपके ही उत्तर से प्रकट हुई है। जैसा कि आपने बताया, आप अपनी कुरूपता का स्मरण प्रतिदिन इसलिए करते हैं कि आप शुभ कर्म करके अपने कुरूपता को ढक सके। अतः आपके इस उत्तर के अनुसार तो सुंदर लोगों को आईना देखना ही नहीं चाहिए ?
ऐसी बात नहीं है शिष्य। सुकरात ने कहा- आईना तो उन्हें भी अवश्य देखना चाहिए ताकि उन्हें ध्यान रहे कि वे जितने सुंदर दिखते हैं उतना ही सुंदर काम भी करें। और कहीं उनके बुरे काम उनकी सुंदरता को ढक ना ले और परिणाम स्वरूप उन्हें कुरूप न बना दें। अब शिष्य को सुकरात के आईना देखने का रहस्य का पता चल गया था और वह उनके आगे नतमस्तक हो गया था।
प्रस्तुत है महान दार्शनिक सुकरात के दस अनमोल शिक्षा।
1) अपना समय औरों के लेखों से खुद को सुधारने में लगाएँ, ताकि आप उन चीजों को आसानी से जान पाए जिसके लिए औरों ने कठिन मेहनत की है।
2) मित्रता करने में धीमे रहिए पर जब कर लें तो उसे मजबूती से निभाये और उस पर स्थिर रहें।
3) इस दुनिया में सम्मान से जीने का सबसे महान तरीका है कि हम वो बने जो हम होने का दिखावा करते हैं।
4) हमारी प्रार्थना सामान्य रूप से आशीर्वाद के लिए होनी चाहिए क्योंकि भगवान जानते हैं कि हमारे लिए क्या अच्छा है।
5) झूठे शब्द सिर्फ खुद में बुरे नहीं होते बल्कि वे आपकी आत्मा को भी बुराई से संक्रमित कर देते हैं।
6) वह सबसे धनवान है जो कम से कम में संतुष्ट है क्योंकि संतुष्टि प्रकृति की दौलत है।
7) मैं सभी जीवित लोगों में सबसे बुद्धिमान हूँ क्योंकि मैं यह जानता हूँ कि मैं कुछ नहीं जानता।
8) मूल्यहीन व्यक्ति केवल खाने और पीने के लिए जीता है जबकि मूल्यवान व्यक्ति केवल जीने के लिए ही खाते और पीते हैं।
9) चाहे जो हो जाए, शादी कीजिए। अगर अच्छी पत्नी मिलती हैं तो आपकी जिंदगी खुशहाल रहेगी । अगर बुरी पत्नी मिलती है तो आप दार्शनिक बन जाएंगे।
10) मृत्यु संभवतह मानवीय बारदानों में सबसे महान है।
किशोरी रमण
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बहुत सुंदर! सुकरात की नसीहत हमारी जिंदगी को पूरी तरह बदल सकता है। हमें उनके बताए मार्ग पर चलने की आवश्यकता है।
बहुत सुंदर और ज्ञानवर्धक कहानी।
Very nice👍