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" एक लगोंट सात भाई .."

  • Writer: Kishori Raman
    Kishori Raman
  • Sep 9, 2022
  • 12 min read

Updated: Sep 10, 2022


आखिर जिसका डर था वही हो गया। मुखी जी ने बताया कि कैश टैली नहीं कर रहा है। डिफरेंस है। यह सुनकर तो सबके होश उड़ गए और हम सबने अपना माथा पीट लिया। असल में हम केनरा बैंक तांतनगर के सभी स्टाफ जो चाईबासा से रोजाना आना जाना करते थे, चाह रहे थे कि जल्दी से जल्दी कैश टैली हो और हम सब ब्रान्च को बंद करके यहां से भाग ले। ब्लॉक के सारे स्टाफ जो चाईबासा से आना-जाना करते थे पहले ही जा चुके थे। बस पूरे ब्लॉक बिल्डिंग में केवल हम बैंक वाले ही बच रहे थे। असल में बात ही कुछ ऐसी थी। बरकुंडिया नदी जो चाईबासा और तांतनगर के बीच बहती थी वह इलाके में भारी बारिश होने के कारण तेजी से बढ़ रही थी। अंदाजा था कि यह एक-आध घंटे में इतनी बढ़ जाएगी कि उसे पार नहीं किया जा सकेगा। आप सब सोच रहे होंगे कि मै यह क्या पहेली बुझा रहा हूँ तो सुनिए पुरी कहानी। आज सुबह से ही भारी बारिश हो रही थी। हम लोग रोज चाईबासा से जो तांतनगर से 18 किलोमीटर दूर था से आना-जाना करते थे। क्योंकि आना-जाना मोटरसाइकिल से करते थे अतः रेनकोट के बावजूद हम सब ब्रांच में आते-आते पूरी तरह भीग चुके थे। जो पुराने स्टाफ थे वे लोग बरसात के समय एक एक्स्ट्रा शर्ट पैंट ब्रांच में रखते थे। तो और लोगों ने तो अपने कपड़े उतारे और सूखे कपड़े पहन लिए पर सरकार दादा जो कुछ ही दिन पहले कोलकाता से प्रमोशन पाकर इस शाखा में आए थे और जो अभी शाखा के इंचार्ज थे (परमानेंट मैनेजर छुट्टी पर थे) वह पूरी तरह भीग चुके थे। मैंने उनसे कहा- आज वैसे भी बहुत कम ग्राहक आएंगे। आप ऐसा कीजिए की अपना पैंट जो पूरी तरह भींग चुका है उसे उतार कर सूखने के लिए टाँग दे और अपने अंडरवियर में ही कुर्सी पर बैठ जाइए। टेबल से आपका कमर से नीचे का हिस्सा छुपा रहेगा। कोई आए तो भी खड़ा नहीं होना है। बस किसी को पता भी नहीं चलेगा और शाम तक तो पैंट सुख ही जायेगा। पर कहावत है मुसीबत अकेले नहीं आती। अब भला देखिए ना, इस बरसात के समय में भी एलबीओ साहब आ गए शाखा विजिट और आई आर डी पी के प्रगीति की समीक्षा के लिए। वे वी डि यो साहब के चेंबर में ही बैठे। चूंकि हमारी शाखा ब्लॉक बिल्डिंग के ही दो कमरों में चलती थी और शाखा में बैठने के लिए जगह नहीं था। बी डी ओ ने मिलने के लिए हम सबको बुलाया। मैनेजर साहब के बदले मैं वी डी ओ साहब से मिलने गया। जब मैंने बताया की हमारे आज के शाखा इंचार्ज क्यो आप सबो से मिलने मे असमर्थ है तो वे लोग भी हँस पड़े। अभी ये बात चल ही रही थी कि तभी एल बी ओ साहब के जीप का ड्राइवर जल्दी से चैम्बर में घुसा और बोला- साहब, अभी-अभी खबर आई है कि बरकुंडिया नदी का पानी बढ़ रहा है। जल्दी से निकल चलिए, नहीं तो हम लोग इधर ही फँस जाएंगे। इस पर एल बी ओ साहब बोले - हाँ, जब मैं आ रहा था तभी लग रहा था कि नदी का पानी पुल के ऊपर से शीघ्र ही ओवरफ्लो करने लगेगा। अब आप लोग भी निकल चलिए। इतना कह वे उठे और जल्दी से अपनी जीप की तरफ बढ़ गए। उनके जाने के बाद वी डि यो साहब और ब्लॉक के सारे स्टाफ जो चाईबासा से आना-जाना करते थे, धीरे-धीरे कर वहाँ से निकल गए। हमारे बैंक के सारे स्टाफ को मालूम पड़ गया था कि नदी में पानी बढ़ रहा है। सब लोग जल्दी-जल्दी कैश टैली कराकर ब्रान्च क्लोज करने के प्रयास में लग गए। तभी मुखी जी ने कहा कि कैश टैली नही है। यह सुनकर हम सबके प्राणी सूख गए। करीब दो बजने वाले थे। अगर ढाई बजे तक नदी को पार नहीं किया गया तो पूरी संभावना थी कि हम इधर ही फँस जाएंगे। अब निर्मल कंडुलना जी कैश केबिन में घुसे और टैली कराने में मुखी जी की मदद करने लगे। कुछ ही देर में कैश टैली हो गया। मुखी जी टोटल में गलत कर रहे थे। यह सुनकर सबकी जान में जान आई और सब जल्दी-जल्दी कैश को डबल लॉक में रखकर शाखा से निकलने की तैयारी करने लगे। लेकिन होनी को भला कौन टाल सकता है। जब हम चारों, मैं और सरकार दा एक मोटरसाइकिल पर तथा मुखी जी और निर्मल जी दूसरे मोटरसाइकिल पर बरकुंडिया नदी के पास पहुंचे तो उसे देखकर हम लोग का कलेजा मुहँ को आ गया। नदी करीब तीन फीट पुल के ऊपर से बड़े रफ्तार से बह रही थी। नदी का पुल वहाँ धनुषाकार शेप में था। यानी दोनों तरफ की सड़क ऊँची और पुल नीचे। पानी की रफ्तार इतनी तेज थी कि उसे पार करना नामुमकिन था। हाँ, हमारे दो साथी जो आधा घंटा पहले निकले थे वे नदी पार कर गए थे। हम लोग वहीं खड़े खड़े कभी नदी के पानी को तो कभी नदी के दोनों छोरो पर खड़े मायूस लोगों को देख रहे थे। पानी मे एक बस ( छोटा नागपुर एक्सप्रेस ) भी फंसा हुआ था। बस का अगला गेट पानी मे तथा पिछला गेट सूखे रोड पर था। क्योंकि चाईबासा में आज वीकली हाट था अतः हफ्ते भर का सामान उस बस पर लोड था। आसपास के गाँव के लोग चाईबासा से सामान खरीद कर उसी बस से कोकचो, तांतनगर आ रहे थे। उस बस के ड्राइवर ने सोचा होगा कि बस को नदी से निकाल लेगा पर ज्यो ही अगला चक्का और अगला भाग पानी मे घुसा की इंजन बंद हो गया। क्योंकि इंजन बंद हो चुका था अतः पैसेंजर पिछले गेट से जो अभी भी पानी से ऊपर था निकल सड़क पर खड़े हो गए। पानी धीरे धीरे बढ़ता गया। बस का आगे वाला भाग पूरी तरह पानी में डूब गया और कुछ ही देर के बाद जब पानी की रफ्तार तेज हुई है तो बस भी बह कर नदी में चला गया। निराश मन से निर्मल जी ने कहा- यह पानी तो अभी बढ़ ही रहा है। इसके उतरने की संभावना तो आज है नहीं। अगर पानी बंद हुआ तो कल ही उतरेगा। हम लोग को यहाँ से वापस चलना चाहिए। पर वापस जाएंगे कहाँ ? मेरे इस प्रश्न को सुनकर मुखी जी बोले। अभी तो कोकचो चलते हैं जहाँ हमारे दफ्तरी धीरेन जी रहते हैं। वे कुछ इंतजाम अवश्य करेंगे। धीरेन जी ने जब हम लोग को देखा तो खुश हो गए। उन्होंने बड़े गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया। वे बोले, कई बार आप सब लोगों से मैंने आग्रह किया की हमारे यहाँ कभी तो ठहरे पर आप लोग कभी नहीं ठहरे। चलो इसी बहाने तो आप हमारे मेहमान बन रहे हैं और गरीब को सेवा करने का मौका दे रहे हैं। धीरेन कच्चे मकान में रहता था। कोकचो में सारे मकान कच्चे और खपरैल वाले ही थे। उस मकान में तीन कमरे थे। तीनों में अलग-अलग लोग किराए पर रहते थे। बरामदे में चूल्हा जलाकर लकड़ी य कोयले पर खाना बनाते थे। टॉयलेट और नहाने के लिए बाहर खुले में जाना पड़ता था। अभी तो बारिश बंद थी पर आकाश में काले काले बादल घुमड़ रहे थे। लगता था जोरदार बारिश होगी। धीरेन जी गाँव के हाट में गए और छोटका चेलावा मछली खरीद कर लाए। उसे तला फिर उसमें झोर लगाया और चावल बनाया। हम चारों ने मछली भात का आनंद लिया। अब समस्या ये थी कि आज की रात को सोएंगे कैसे? जमीन तो गीली थी। उस पर दरी बिछाकर नहीं सोया जा सकता था। धीरेंन जी के पास दो छोटे बाँस के बने खाट थे। अतः हम चारों लोग का सोना कैसे हो, एक बड़ी समस्या थी। तभी हमारी शाखा के गार्ड सुंडी जी वहाँ साइकिल से आए। उनके हाथ में एक लालटेन था तथा साइकिल के पीछे कैरियर पर एक दरी था। उन्होंने कहा- हम डाक- बंगला का चाबी लेकर आए हैं। उसमें दरी बिछा देंगे, आप लोग रात को वही सो जाना। सुनकर हम लोग खुश हो गए। चलो सोने का तो बंदोबस्त हो गया। आप सबको बता दे कि सुंडी जी ब्लॉक बिल्डिंग के पास बने क्वार्टर जो यहाँ से तीन किलोमीटर दूर है में रहते थे। क्योंकि कोई भी ब्लॉक का स्टाफ वहाँ नहीं रहता था अतः सारे के सारे क्वार्टर खाली रहते थे। केवल ब्लॉक के चपरासी और गार्ड जो लोकल ही थे उसमें रहा करते थे। उस समय बिजली तो होती नहीं थी। नजदीक का पुलिस स्टेशन भी पन्द्रह किलोमीटर दूर मझरियां में था जो उड़ीसा बॉर्डर से पाँच किलोमीटर पहले था। मैं जिस घटना का जिक्र कर रहा हूँ वो सन 1985 का है। उस समय इलाके में भयंकर मारकाट मची हुई थी। आदिवासियों का एक गुट कोल्हनिस्तान नामक अलग देश की माँग कर रहा था। सरकार समर्थित गुट इसका विरोध कर रहा था। दोनों गुटों में अक्सर झड़प होते रहता था। हमारे बैंक को भी दो बार लूट लिया गया था। चाईबासा से तांतनगर शाखा में आते जाते हम लोगों से भी कई बार पैसे और घड़ी भी छीन लिए गए थे। खाने के बाद धीरेन जी हम लोगों को लेकर डाक बंगला में आ गए, जो उनके घर से थोड़ी दूर कोकचो गाँव के बाहरी इलाके में था। बहुत पुरानी बिल्डिंग थी। अंग्रेज के जमाने का बना हुआ,जिसके दीवार के सारे प्लास्टर उखड़े हुए थे। फर्श ईंट का बना हुआ था जैसे पहले गांव की गलियों में ईंट बिछाए जाते थे। ऊपर खपरैल था। एक बड़ा सा हॉल और एक कमरा, कमरे में ताला लगा हुआ था। शायद कुछ कागज पत्तर या अन्य सामान रहे होंगे। डाक बंगला के चारों तरफ फेंसिंग के लिए जो लोहे के तार लगाए गए थे वह सब टूट चुके थे। चारों तरफ घास के मैदान और बड़ी-बड़ी झाड़ियाँ उगे हुए थे। लगता थ हम किसी भूत बंगला में आ गए हो। दरवाजे और खिड़कियां सही सलामत थे यही कारन था कि डाक बंगला टूटी-फूटी अवस्था मे होने के बाबजूद साफ-सुथरा और आवारा पशुओं से सुरक्षित था। दरी बिछाई गई और हम लोग उस पर लेट गये। तकिया तो था नहीं अतः अपने जूतों को दरी के नीचे रखकर उसे तकिया बनाया। शायद पहले बारात इत्यादि यहाँ ठहराया जाता था। लेकिन विगत आठ दस सालों से यहाँ कोई नहीं ठहरा है यह सुनकर थोड़ा डर लगने लगा। लालटेन की रोशनी को कम करके सोने का प्रयास हम चारों करने लगे। तभी बाहर किसी जानवर के चीखने की आवाज आई। मुखी जी उठ कर बैठ गए और पूछा क्या है ? किसकी आवाज है ? निर्मल जी कुछ कहते कि वह आवाज फिर से आई। अब निर्मल जी ने कहा- लगता है किसी मेंढक को किसी साँप ने पकड़ लिया है। और यह मेंढक के चीखने की आवाज है। साँप का नाम सुनते ही मुखी जी उछल पड़े। उठ कर बैठ गए और लालटेन की लौ को बढ़ा दिया। क्या हुआ, निर्मल जी ने पूछा ? यार एक तो इस भूत बँगले में भूत का ही डर लग रहा था। अब तो आस पास साँप भी है।अब कैसे नींद आएगी ? निर्मल जी बोले- बाहर घास फूस और जंगल झाड़ी हैं और बरसात का समय भी। उधर से ही आवाज आ रही है। तुम डरो मत। बस चुपचाप सोने का प्रयास करो। कुछ समय बाद सब को नींद आ गई । अभी करीब आधा घंटा ही हुआ था कि बहुत जोरों से बादल गरजा और बारिश शुरू हो गई। हम सबकी नींद फिर से खुल गई। खपरैल छत पर पानी की बूंदे अजीब सी आवाज पैदा कर रही थी. हम लोग लेट कर आँखे बंद कर सोने का प्रयास कर रहे थे तभी किसी ने मुझे झकझोर कर उठाया। देखा तो तीनों खड़े हैं। मैंने पूछा- अब क्या हुआ ? अरे आप उठिए। जल्दी कीजिए। यहाँ छप्पर से पानी टपक रहा है। दरी को दूसरी तरफ खींच कर ले चलते हैं। हम लोगों ने खींचकर दरी को उधर किया जिधर छत पर से पानी नहीं टपक रहा था। पर पानी था कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। और दूसरी जगह भी पानी टपकने लगा। फिर तो हम लोग दरी को खींचकर एक जगह से दूसरी जगह करते रहे ताकि पानी से बचे पर हर तरफ, कहीं ज्यादा तो कहीं कम ,पानी टपक रहा था। और इस तरह जागते जागते सुबह हो गई। सुबह बारिश में ही छाता लेकर धीरेन जी पहुँचे। देखा की डाक बंगला का सारा फर्ज गीला है। हम लोग बरामदे में दरी को लपेट कर उस पर बैठे हुए थे। वे सारा माजरा समझ गए। उन्होंने एक और बुरी खबर सुनाई- बोले, रात भर पानी हुआ है अतः आज भी बरकुंडिया नदी का पानी उतरने की संभावना नहीं है। फिर उन्होंने दो छाता मंगवाया और हम लोग को दिया। एक छाते में दो लोग होकर हम लोग डाक बंगले से उनके घर की कोठरी में आ गए। वहाँ पड़े दो खाट पर किसी तरह बैठ गए। अब समस्या ये थी कि नित्य क्रिया के लिए तो बाहर जाना होगा। चलो नहाने का कार्यक्रम स्थगित कर देंगे लेकिन टॉयलेट के लिए तो बाहर खेत में जाना ही होगा बाहर बारिश हो रही थी और तेज हवा भी चल रही थी। छाता ले कर बाहर जाने में और रेनकोट पहनकर भी जाने में भीगने की संभावना थी। अगर भीग गए तो दूसरे कपड़े तो थे नहीं। और भीगे कपड़े इस बरसात में तो सुखेगे नहीं। अतः समस्या थी कि बाहर टॉयलेट के लिए कैसे जाया जाए ? तभी धीरेन ने एक सलाह दी। एक रेनकोट और एक छाता तो है ही आप के पास। ऐसा कीजिए कि एक-एक कर टॉयलेट के लिए जाइए। हाँ,टॉयलेट के लिए जाने के पहले अपने सारे कपड़े उतार दीजिए। केवल जाँघिया और बनियान और उस पर से रेन कोट पहन लीजिए। फिर छाता ले लीजिए। इस तरह से आप के कपड़े भीगने से बच जाएंगे। एक आदमी जब वापस आएगा तो वही रेनकोट और छाता लेकर दूसरा आदमी चला जाएगा। इस तरह सब लोग बारी-बारी से नित्य क्रिया से निवृत हो जायेगें। मुझे हँसी आ गई। मुझे गाँव की एक बहुत ही प्रचलित कहावत याद आ गई। एक लंगोटी सात भाई फेरा फेरी खेलन जाय। यहाँ हम चारों में से तीन तो गाँव के पृष्ठभूमि वाले लोग थे और जिनके लिए टॉयलेट के लिए बाहर जाना ज्यादा मुश्किल नहीं था। पर सरकार दादा तो कलकत्ता से कुछ ही दिन पहले ट्रांसफर होकर आए थे। वह बोले भाई मैं तो बाहर खेत में जा नहीं सकता। धीरेन थोड़ा मजाकिया स्वभाव का था। वह बोला, भाई धान के खेत के मेड पर संभल कर जाइएगा। उधर ढोर साँप भी बहुत होता है। साँप का नाम सुनकर मुखी जी और सरकार दादा दोनो डर गये। बोले- अब तो टॉयलेट जाएंगे ही नहीं। पहले निर्मल जी ने रेनकोट पहना, छाता लिया और हाथ में पानी का डब्बा पकड़ खेत की तरफ निकल गये। वापस आए तो बाहर हैंड पम्प के पानी से हाँथ मुहँ धोया और अपनी उंगली से ही दांतो को साफ कर लिया। फिर इत्मीनान से अपने पैंट शर्ट पहन कर खाट पर बैठ गये। उसके बाद बारी-बारी से हम तीनों बाहर गए और नित्य क्रिया से निवृत्त हुए। तब तक आठ बज चुके थे। धीरेन लाल चाय बना कर पिलाया। इतना टेस्टी चाय पीकर मजा आ गया। उस समय लग रहा था कि इससे अच्छा चाय तो हमने कभी पी ही नहीं है। दस बजने वाले थे। हम लोगों ने विचार-विमर्श किया कि सबको शाखा में जाने से कोई फायदा नही है। ऐसे भी कोई ग्राहक तो आएगा नही। दोनो की होल्डर जायेगें और शाखा खोलकर दो-तीन घंटा बैठेगें और फिर वापस आ जायेगें। क्योंकि तांत नगर और मंझरिया दोनो ब्लॉक के सभी स्कूलों के टीचर का सैलरी का पेमेंट केनरा बैंक से ही होता था और सारे टीचर बाहर से ही आना जाना करते थे तथा वे ही हमारे मुख्य ग्राहक थे। रास्ता बंद होने के कारण उनके आने की संभावना कम ही थी। दो बजे तक सरकार दा और निर्मल जी वापस धीरन के पास आ गए। पानी तो बंद हो चुका था लेकिन आसमान में काले काले बादल हम सबको डरा रहे थे। हम सब भगवान से प्रार्थना कर रहे थे कि पानी ना बरसे ताकि कल तक बरकुंडिया नदी उतर जाए और हम लोग के लिए चाईबासा जाने का रास्ता खुल सके। हम सब एक छोटी खाट पर दो दो आदमी बैठ कर समय गुजार रहे थे। शाम को धीरेन ने चावल दाल बनाया पर सब्जी नही था। उसने प्याज काट कर उसका ही सब्जी बनाया। खाना खाकर सोया कहाँ जाए ये बड़ी समस्या थी। मुखी जी ने तो साफ मना कर दिया कि डाक बंगला में नहीं जाएंगे भले ही इसी खाट पर बैठकर रात गुजारना पड़े। और हम सबों ने वैसा ही किया। रात भर दो दो आदमी एक खाट पर रात गुजारी।जब एक को नींद आती तो दूसरा उठ कर बैठ जाता। इस तरह से आधा सोकर और आधा जाग कर रात गुजारी। पानी तो हल्का हल्का अभी भी हो रहा था पर हवा की रफ्तार कम थी। कल वाले आइडिया को अपनाकर हम लोग नित्य क्रिया से निवृत हुए। एक पेड़ के तने से दातुन बना दाँत साफ किया। धीरेन ने बताया कि आज बस खाने में चावल ही है। दाल सब्जी दुकान में उपलब्ध नही है। आज दोपहर के खाने में चावल और उसके माड़ में फुटकल( एक तरह का पेड़ जिसके पते को सुखाकर रखा जाता है) डाल कर बनाया गया झोर था। भूखा क्या न करता। हम लोगो ने बड़े चाव से भात और फुटकल का झोर का आनन्द लिया। इस तरह से तीसरा दिन भी कट गया। बीच-बीच में हम लोगों को बरकुंडिया नदी के पानी के बारे में समाचार मिलते रहता था। हम लोग भगवान से प्रार्थना कर रहे थे की बारिश बंद हो, नदी का पानी उतरे और हमें यहाँ से छुटकारा मिले। आज हम लोगों का तीसरा दिन था हमलोगों ने पिछले दो दिनों से न ठीक से सो पाये थे और न ही स्नान किया था। तीसरी रात भी आ गई और अब मुझे यह डर बार-बार सताने लगा की अगर मैं बीमार पड़ा तो यहाँ न तो दवा है और न ही डॉक्टर। फिर क्या होगा ? आज दोपहर से बारिश रूकी हुई थी। रात में भी बारिश नहीं हुई । पर जब चौथे दिन सुबह बारिश शुरू हुई तो हम सबका दिल बैठ गया। यह समाचार हम सबको मिल रहा था कि बरकुंडिया का पानी उतर रहा है और दोपहर तक पार करने लायक हो जाएगा। आज चौथे दिन कुछ ग्राहक शाखा में आये जिन्हें हमलोगों ने जल्दी जल्दी निबटाया फिर शाखा बंद कर मोटरसाइकिल से निकल पड़े। जब बरकुंडिया नदी के पास आये तो देखा कि नदी का पानी तो उत्तर गया है पर अभी भी करीब एक फ़ीट पानी नदी के पुल के ऊपर से बह रहा है। गाँव वाले तो उसे पार कर जा रहे थे पर हम लोगों की हिम्मत नहीं हो रही थी उसे पार करने की। तभी फिर बारिश शुरु हो गई। अब निर्मल जी ने कहा, देखो,अगर हम लोग डर कर खड़े रहे तो कुछ ही देर में पानी बढ़ने लगेगा और आज भी हम लोग इधर ही फंसे रहेंगे। फिर निर्मल जी ने गाँव के लोगों से बात की। गाँव के युवा लड़के जो नदी में छलांग लगा कर मस्ती कर रहे थे हमारी मदद को आगे आए। हम में से हर एक को दो लोगों ने साइड से (अगल बगल से)हमारी बांह पकड़ी। पैंट को हमने पहले ही घुटनो के ऊपर उठा रखा था तथा हमारे जूते हमारे हाँथ में थे। और इस तरह से गाँव वालों की मदद से हम सब नदी पार कर गए। फिर हमारी मोटरसाइकिल को गाँव वालों ने दो बांस के सहारे चार चार लोगों ने अपने कंधे पर टांग कर पार कर दिया। बदले में उन्होंने हम प्रत्येक आदमी से दो रुपये लिए। खैर रुपए की बात नहीं थी। नदी को पार करते ही लगा कि हम लोगों को नया जीवन मिला हो। किशोरी रमण BE HAPPY....BE ACTIVE...BE FOCUSED...BE ALIVE If you enjoyed this post, please like , follow,share and comments. 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4 Yorum


sah47730
sah47730
10 Eyl 2022

वाह भाई! ग्रामीण शाखा में काम करने और वहां के रोमांचक अनुभव का मार्मिक चित्रण पढ़ कर दर्द की अनुभूति के साथ साथ अपने राजस्थान के ग्रामीण शाखा के दिनों की याद ताजा हो गई। बहुत सुंदर लेखन के लिए धन्यवाद।

:--- मोहन "मधुर"

Beğen
Kishori Raman
Kishori Raman
10 Eyl 2022
Şu kişiye cevap veriliyor:

धन्यवाद दोस्त।

Beğen

Bilinmeyen üye
10 Eyl 2022

Very very nice story....

Beğen

verma.vkv
verma.vkv
09 Eyl 2022

वाह, बहुत सुंदर संस्मरण ।

Beğen
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