कुछ दिन पहले की बात है। मैं अपने एक रिश्तेदार से मिलने शहर से दूर सुदूर एक गाँव में गया था। मेरे रिश्तेदार का घर गाँव के प्राइमरी स्कूल के पास ही था। मैं देख रहा था कि स्कूल में बच्चे तो हैं पर शिक्षक नहीं हैं। कुछ देर के बाद एक शिक्षक पहुँचे। मालूम हुआ पहले तीन शिक्षक थे, दो सेवानिवृत्त हो गए और अब बचे है एक शिक्षक। स्कूल के इकलौते शिक्षक ही सारे स्कूल को संभाल रहे है या यूं कहें कि हाँक रहे हैं। पहली कक्षा को उन्होंने टास्क दिया कि क ख ग किताब से देख कर स्लेट पर लिखो। फिर दूसरी कक्षा में टास्क दिया सात और आठ का पहाड़ा (टेबल) याद करो और फिर तीसरी कक्षा में आकर कुर्सी पर बैठ गए और अख़बार पढ़ने लगे।
उत्सुकतावश मैं भी शिक्षक महोदय के पास पहुंचा और अपना परिचय दिया। यह सुनते ही कि मैं एक रिटायर्ड बैंकर हूँ, अपने वेतन भुगतान करने वाले बैंक के बारे में शिकायत करने लगे। फिर शिक्षक एवम संसाधनों की कमी और सरकार द्वारा उनको पढ़ाई के अलावा ,अन्य फालतू कामो में लगाये जाने इत्यादि पर चर्चा करने लगे।
मैंने उनकी आज्ञा ली और दूसरी कक्षा में चला गया जहाँ बच्चों को पहाड़ा याद करना था। मुझे बच्चों को पहाड़ा रटवा कर बहुत मजा आया |
अब मैं चर्चा करना चाहूंगा अपने राज्य की बदहाल शिक्षा ब्यवस्था पर। बिहार जैसे राज्य में तो शिक्षा की बदहाली ज्यादा ही है। सरकारी स्कूलों मे जरूरी सुबिधाओं ,संसाधनों एवम शिक्षकों का घोर अभाव है। प्राईवेट स्कूल रूपी दुकान कुकुरमुत्तों की तरह खुल गए हैं। अच्छे प्राईवेट स्कूल में तो एडमिशन के लिए मेरिट,पैसा और पैरवी चाहिए। लेकिन जो गरीब और निम्न आय वर्ग के लोग हैं, वे कहाँ जाए ? जो शिक्षा के महत्व को समझते हैं औऱ चाहते हैं कि उनका बच्चा भी पढ़ लिख कर बडा आदमी बने , ऐसे ही गरीब और सीधे साधे लोग इन स्कूलों के चँगुल में फँसते है। पेट काट कर बच्चो को पढ़ाते है, पर जब परिणाम आता है तो उन्हें लगता है कि उनके साथ धोखा हुआ है। शिक्षा की दूकान चलाने वालों ने उनके खून-पसीने की कमाई लेकर जो उनके बच्चों को शिक्षा का दान दिया है उसमें गुणवत्ता का अभाव है।
अभी कुछ दिन पहले पटना उच्च न्यायालय ने सरकार से सवाल पूछा था कि राज्य के सरकारी स्कूलों में राज्य में कार्यरत ब्यूरोक्रेट्स के कितने बच्चे पढ़ते है, तो सरकार का जबाब था --एक।
और यही समस्या की जड़ है। जब नेताओ,अधिकारियों और बड़े ब्यापारियों के बच्चे इन स्कूलों में पढ़ते ही नही तो भला वे इन स्कूलों पर क्यो ध्यान देंगें ?
आखिर हमने भी तो इन्ही सरकारी स्कूलों में पढ़ाई की है। तब इनका स्तर अच्छा था क्योकि सबके बच्चे यहीं पढ़ते थे ,और आज की तरह तब प्राइवेट स्कूल भी नहीं थे।
अब आते है असली मुद्दे पर। एक सवाल है जिसपर हम सब चिंतन मनन कर सकते हैं।
सेवानिवृत्ति के पश्चात ज्यादातर लोगों की यह प्राथमिकता होती है कि अपने आप को स्वस्थ रखा जाय और साथ ही साथ ब्यस्त रखा जाय। स्वास्थ और ब्यस्तता दोनों एक दूसरे के पूरक हैं क्योंकि जो ब्यस्त रहेगा वही तो स्वस्थ रहेगा।
क्या हम सेवानिवृत्त लोग अपने को ब्यस्त रखने के लिए ही सही ,अपनी सुविधानुसार अपने घर के आस पास के किसी सरकारी स्कूल की कुछ मदद कर सकते है ? और कुछ नहीं तो विद्यादान तो कर ही सकते हैं। समाज और इन्ही सरकारी स्कूलों ने हमे इस लायक बनाया है तो हमारा भी तो कुछ फर्ज बनता है उन एहसानों को चुकाने का।
सोचिये, इस पर जरूर सोचिये , और कभी कभी टहलते हुए निकल जाइये अपने आसपास के सरकारी विद्यालयों की तरफ , समय बिताने के लिए ही सही। वहाँ बैठे मासूम बच्चो को देखेंगे तो आपका दिल भी बहल जाएगा और समय भी कट जाएगा, और इस तरह समाज का, गरीबो का कुछ भला हो पायेगा |
Kishori Raman
एक सुझाव
Updated: Oct 31, 2021
Bahut hi Sundar....
विचार तो बहुत ही उम्दा है। हम अपनी ब्यस्तता बढ़ा कर अपना मन बहलाव करते हुए एक सामाजिक कार्य कर सकते हैं। बल्कि अपनी इस सोच के सहारे सेवानिवृत्त लोगों को संगठित कर एक स्वयं सेवी संस्था बना कर शिक्षा के क्षेत्र में उत्पादकता बढ़ा सकते हैं। क्यों न हम इस दिशा में प्रयास शुरू कर एक नई क्रान्ति के अग्रदूत बनकर इस अछूते क्षेत्र को नई दिशा प्रदान करें।
अभी 16 सितंबर रात्री के10.20 बज रहे हैं।5 सितंबर को गुजरे अभी 15 दिन भी नहीं हुए हैं। शिक्षक दिवस पखवारे को अवसर बना कर इस कार्य की शुरूआत करें।
मेरा विचार है दो चार आदमी को संगठित कर इसपर कार्य शुरू किया जाए।
मैं तो अभी बड़ोदरा में हूँ।…
बहुत सुन्दर विचार |