आज प्रस्तुत है एक पुरानी कविता, उन दिनों की जब हम भी जवां हुआ करते थे ख्वाबो के पंख लगा कर बेफिक्र उड़ा करते थे
"मेरी आशिकी नई नई है"
मुखड़े पर शबनम की बूंदें
पास खड़ी वो आंखें मूंदे
शरमाती ज्यों छुई मुई हो
पता नही वो किसको ढूढें
यारों तुमको क्या बतलाऊं
जहां भी देखूं उसे ही पाऊं
रात ढली अब सुबह हुई है
मेरी आशकी नई नई है
सत रंगी सपनो के पीछे
भाग रहा मैं आँखें मीचे
मुझको तो कुछ पता नही
कोई है जो मुझको खींचें
ढूंढ रहा मन बना बाबला
पता नही, क्या है मामला
वो जो बोले वही सही है
मेरी आशिकी नई नई है
जिसके लबो पे मेरे गीत है
कैसे कहूं वो मेरी मीत है
सच झूठ का पता नही पर
उनकी हँसी में मेरी जीत है
उसको अब कैसे समझाऊं
कैसे दिल का राज बताऊं
जीवन में तो प्रश्न कई है
मेरी आशिकी नई नई है
किशोरी रमण
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Very nice.
यह रचना बुढ़ापे में भी जवानी भर देने वाली है। धन्यवाद!
बहुत सुंदर ।