रात की ट्रेन से सुबह घर पहुँचा था। सोचा था, एक-दो घंटे सो लूँगा तो दिमाग फ्रेश हो जाएगा। तभी शोर सुन कर नींद खुल गई। छोटी बेटी नीता खिड़की पर खड़ी बड़े जोर जोर से चिल्ला रही थी- मौसा जी, मौसा जी।
मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा और मिसेज को आवाज दी। अरे सुनती हो, देखो तो जरा, लगता है साढू भाई आ रहे हैं।
पत्नी मेरे कमरे में आई और फिर बरामदे में जाकर झाँकने लगी। फिर आकर मुस्कुराते हुए बोली, चुपचाप सो जाओ। तुम्हारे साढू भाई नहीं आ रहे हैं। वह तो बच्चे सब मस्ती कर रहे हैं। एक आदमी रोज इसी समय यहाँ से गुजरता है जिसे सब बच्चे मौसा मौसा कह कर चिढ़ाते हैं। अब तो अपनी छोटी, नीता भी मौसा कह कर उन्हें चिढ़ाने लगी है।
अरे यह तो अच्छी बात नहीं है। किसी को इस तरह से चिढाना ठीक नहीं। मैं नीता को समझाऊंगा, मैंने कहा।
अब छोड़िए इन सब बातों को, पत्नी बोली - असल में उस आदमी का चिढ़ना बनावटी होता है। उसे तो मजा आता है और वह तो चाहता ही है कि सब बच्चे उसे मौसा कहें।
बातें यहीं खत्म हो गई और मैं बिस्तर से उठ कर बाथरूम चला गया। आज बड़ी बेटी आशी का मेडिकल इंट्रेंस हेतू फार्म भरवाने का लास्ट डेट था। इसीलिए मैं दो दिनों की छुट्टी लेकर आया था। बड़ी मुश्किल से छुट्टी मिल पाई थी। आज पहले पोस्ट ऑफिस जाना था, पोस्टल आर्डर खरीदना था और उसके बाद रजिस्ट्री करनी थी। अगर आज यह सब नहीं किया तो आशी का एक साल बर्बाद हो जाएगा।
मैं तैयार होकर आशी को साथ लेकर दस बजे पोस्ट ऑफिस पहुँचा। क्योंकि आज लास्ट डेट था और शनिवार भी था अतः रजिस्ट्री काउंटर पर लंबी कतार थी। अव्यवस्था न फैले इसके लिए पुलिस की भी
व्यवस्था की गई थी। मुझे तो पहले पोस्टल आर्डर खरीदना था। फिर उसे फॉर्म के साथ लिफाफे में डाल रजिस्ट्री करनी थी। भीड़ देख कर मैं घबरा गया। मैं पोस्टल आर्डर वाले लाइन में लग गया। यहाँ भी लाइन लंबी थी। करीब एक बजे काउंटर पर बताया गया कि पोस्टल आर्डर खत्म हो गया है। सुनकर माथा घूम गया। अब जब पोस्टल आर्डर ही नहीं है तो भला फॉर्म भेजूँगा कैसे ? मैं निराश हो गया यह सोच कर कि आशी का एक साल बर्बाद हो जाएगा। मैं यही सोच रहा था कि आशी मेरे कानों में फुसफुसाई - मौसा जी। में चौक कर उसकी ओर देखा। आशी ने एक काउंटर के कोने में बैठे एक शख्स की तरफ इशारा किया और वह बोली, वही तो है जो हमारे मोहल्ले में रहते हैं और जिन्हें बच्चे मौसा कह कर चिढ़ाते हैं। मैं कुछ देर तक सोचता रहा फिर उनके पास पहुँचा। उन्हें नमस्ते किया। वे किसी काम में मशगूल थे। उन्होंने सर उठाकर हमारी तरफ देखा। लगा, वे बेटी को पहचान गए हैं। बड़ी आत्मीयता से पूछा-बेटी, कैसे आना हुआ ?
हमने अपनी समस्या उन्हें बताई। तब उन्होंने कहा- अभी तो पोस्टल आर्डर खत्म हो गया है, इसलिए बाहर इस संबंध में नोटिस भी लगा दिया गया है। कुछ देर तक वे सोचते रहे फिर जैसे उन्हें कुछ याद आया हो। वह बगल में बैठे अपने साथी हुकुम सिंह से बोले,-यार, कल तूने अपने किसी रिश्तेदार के लिए पोस्टल आर्डर लिया था। वह तूने उन्हें दे दिया या अभी भी तेरे पास ही है।
इस पर हुकुम सिंह बोला- भाई अभी तक तो वह आया नहीं, लेकिन क्या पता अभी आ जाय।
इस पर वो बोले ,यार उसे अगर आना रहता तो आ गया होता। अब फॉर्म भरने का समय भी समाप्त हो रहा है। तुम एक काम करो। वह पोस्टल आर्डर मुझे दे दो। तुम्हारे पास तो यूँ ही रखा रह जाएगा, लेकिन इन भाई साहब के लिए वह काम आ जाएगा और बिटिया का कल्याण हो जाएगा।
थोड़े ना नुकर के बाद हुकुम सिंह पोस्टल आर्डर देने को राजी हो गया उसके बाद मौसा जी ने झटपट रजिस्टर्ड लिफाफे में नाम और पता लिखवाया और उसमें पोस्टल आर्डर डाल कर खुद लेकर काउंटर पर गए। रजिस्ट्री काउंटर वाले स्टाफ रजिस्ट्री क्लोज कर अपना हिसाब किताब मिला रहा था। वहाँ भी इन्होंने बहुत रिक्वेस्ट करके आज की डाक में इसे शामिल करवा लिया। और इस तरह से अपना काम बन गया मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और आशी ने तो खुशी के मारे उनके पाँव छू लिए।
कुछ समय बाद की बात है। आशी मेडिकल इंट्रेंस टेस्ट में शामिल हुई और उसमें सफल भी हो गई। घर और मुहल्ले में खुशी का माहौल था। मोहल्ले में मिठाईयां बांटी गई तभी बेटी ने याद दिलाया की मौसा जी को भी मिठाई खिलाना चाहिए। इस पर घर वालों ने तुरंत अपनी रजामंदी दे दी। मैंने एक पैकेट में मिठाई लिया और उनके घर का पता पूछते पूछते उनके घर पहुँच गया। मुझे देखते ही वे पहचान गए, और बड़ी आत्मीयता से अपने घर के अंदर मुझे ले गए। मैंने बेटी के मेडिकल एंट्रेंस टेस्ट में सफल होने की बात बताई और उन्हें मिठाई खिलाई। वह भी बेटी की सफलता की बात सुनकर बहुत खुश हुए।
वे घर में अकेले रह रहे थे। जब मैंने उनसे उनके परिवार वाले के बारे में पूछा तो वे कुछ सकुचा से गए। फिर धीरे से बोले,मेरी पत्नी मेरी बेटी के साथ मुझसे नाराज हो कर एक साल पहले यहाँ से अपने मैके,अपने माता-पिता के पास चली गई है।
तो आप उसे मना कर क्यों नहीं ले आते ? मैंने पूछा।
मैंने कोशिश तो बहुत की पर वो राजी नहीं होती, उन्होंने जबाब दिया।
मैं कुछ देर खामोश रहा फिर बोला- भाई साहब, वैसे तो यह आपका निजी मामला है पर क्या मुझे बता सकते हैं कि आखिर उनकी यहाँ ना आने की वजह क्या है ?
अब क्या बताऊं भाई साहब ? कहते हुए मुझे शर्म आती है। वैसे कोई बड़ी वजह नहीं है पर उसने जानबूझकर इसे बहुत बड़ा बना दिया है।
मेरी आंखों में जानने की उत्सुकता को भाफ़ कर उन्होंने कहना शुरू किया। मेरी शादी आज से करीब तीन साल पहले हुई थी क्योंकि मैं एक गरीब परिवार से था अतः मेरी शादी के लिए रिश्ते नहीं आ रहे थे। ज्यो ही मेरी पोस्ट ऑफिस में नौकरी लगी फिर तो रिश्तो की बाढ़ सी आ गई। मनीषा एक अच्छे परिवार की पढ़ी-लिखी लड़की थी। उसके पिताजी रेलवे में थे। उसके परिवार वालों ने मुझे पसंद किया और चट मंगनी, पट ब्याह हो गया। करीब दो साल तक हम लोगों की गृहस्थी ठीक से चली और इसी बीच मेरी बेटी का जन्म हुआ।
पर फिर हम लोगों के संबंधों में खटास आ गया। मनीषा अपनी बेटी को लेकर एक साल पहले मायके चली गई और अब तक लौटकर नहीं आई है।
इस पर मैंने पूछा आखिर आपस में ऐसी क्या बात हो गई कि उसने घर छोड़ दिया और बसी बसाई गृहस्ती में खुद ही आग लगा दी।
देखिए, अगर देखा जाए तो बात कुछ भी नहीं है। असल में मैं पोस्ट ऑफिस में चपरासी के पद पर काम कर रहा था जो उसे मालूम नहीं था। उसे बताया गया था कि मैं पोस्ट ऑफिस में किसी अच्छे पद पर हूँ। दूसरे, वह मुझसे ज्यादा पढ़ी लिखी थी। उसे लगता है कि मैंने उसे धोखा दिया है और वह मुझे छोड़ कर चली गई।
कुछ देर तक वह खामोश रहे फिर बोले, मुझसे तो किसी ने पूछा ही नहीं और न ही मैंने कभी किसी से झूठ बोला। पर वह मुझे ही दोषी समझती है। जब से उसके पिताजी गुजरे हैं वह और भी चिड़चिड़ी हो गई है।
शुरू शुरू में तो उसके और बेटी के वियोग में मैं काफी दुखी रहता था और काफी चिड़चिड़ा हो गया था। मैं घर के सामने जो खाली जगह है उसमें खेलने वाले बच्चों को भी डांट कर भगा देता था।
तभी मुझे कुछ याद आया और मैंने पूछ लिया, आपको सब बच्चे मौसा क्यो कहते हैं ?
सवाल सुनकर उनके चेहरे का तनाव दूर हो गया और वे मुस्करा का बोले, भाई साहब, उसकी भी एक अलग कहानी है।
बच्चे सामने बॉल से खेल रहे थे। सहसा बॉल मेरे बरामदे में आ गिरी जहाँ मैं बैठ कर अखवार पढ़ रहा था। बड़े बच्चे बॉल माँगने में डर रहे थे। उनके साथ एक चार पाँच साल की बच्ची भी थी जिसे अन्य बच्चो ने बॉल माँगने के लिए मेरे पास भेजा। वह डरते डरते मेरे पास आई। जब मैंने उसे घूर कर देखा तो वो घबरा गई, और बॉल माँगने के बजाय पूछा, आप कौन हैं ?
गुस्से में मेरे मुहँ से निकला- मौसा।
फिर क्या था, सारे बच्चे चिल्लाने लगे " मौसा बॉल दे दो "
और मैंने बॉल दे भी दी। तब से मुहल्ले के बच्चे मुझे मौसा ही कहते है। अब तो मुझे बच्चो का मौसा कहना बुरा भी नही लगता है।
जब वहाँ से चलने को हुआ तो यूँ ही पूछ लिया। भाई साहब, मेरे योग्य कोई सेवा हो तो बताना। जरूरत हुई तो आशी की माँ के साथ आपकी ससुराल जा कर भाभी को मनाने की कोशिश भी करूँगा।
इस पर वे बोले, मैंने डिपार्टमेंटल परीक्षा दे रखी है। दो तीन महीनों में रिजल्ट आ जाएगा। पूरी उम्मीद है कि प्रोमोट हो कर बाबू बन जाउँगा। तब , मुझे आशा है वो जरूर लौट आयेगी।
इसके बाद तो आशी का एडमिशन मेडिकल कॉलेज में हो गया और मैं भी अपने ड्यूटी पर वापस लौट गया।
बीच बीच मे एकाध दिन के लिए आता तो मौसा से मिलने का समय ही नही मिलता। करीब एक साल बाद लंबी छुट्टी लेकर जब वापस आया तो मौसा से मिलने का प्रोग्राम बनाया।
रविवार का दिन था। मैं सुबह सुबह उनके घर पहुँचा। मेरे घंटी बजाने के बहुत देर बाद दरवाजा खुला। सामने मौसा खड़े थे। पहले से कमजोर और बीमार दिख रहे थे।
मैंने पूछा, आप ठीक तो हैं ?
हाँ.. हाँ, ठीक हूँ। आप अंदर आइए।
मैं अंदर रखे कुर्सी पर बैठ गया। फिर बातों का सिलसिला शुरू करते हुए पूछा। आपके प्रोमोशन का क्या हुआ ?
आपसबों की कृपा से प्रोमोट हो कर बाबू बन गया हूँ और मेरा तबादला भी बगल के शहर के पोस्टऑफिस में हो गया है।
बधाई हो, मैं खुश होते हुए कहा।
इसपर उन्होंने धन्यवाद कहा पर उनके चेहरे पर कोई उल्लास नही था। मैं समझ गया कि उनकी पत्नी और बच्ची वापस नही आये है।
बात को शुरू करते हुए कहा- लगता है अपने भाभी जी को बताया नहीं कि आपका प्रमोशन हो गया है अगर उन्हें पता चलता तो वे जरूर आती।
नहीं ऐसी बात नहीं है। प्रमोशन होने के बाद मैं खुद उनके पास गया था पर वह नहीं आई और मैं निराश होकर वापस आ गया।
भाई साहब ,आप कहें तो मैं ट्राई करूँ ? मुझे विश्वास है वे जरूर यहाँ आएगी।
इस पर उनकी आँखे भर आई और वे बोले, भाई साहब अब कोई फायदा नहीं।
क्या मतलब ? मैंने चौक कर पूछा।
कुछ देर तक खामोश रहने के बाद उन्होंने कहना शुरू किया। लोगों की सलाह पर मैंने प्रमोशन की खुशी में पूजा का कार्यक्रम रखा। मुझे विश्वास था कि पूजा के लिए वह मना नही करेगी और जरूर यहाँ आएगी।
फिर ? मैंने प्रश्न किया।
उनकी आँखों से आसूँ बहने लगे। उन्होंने कहा - पूजा भी खत्म हो गया पर वह नहीं आई। असल में वह मुझे सरप्राइस देना चाहती थी। मुझे बिना बताए खुद मेरे पास आना चाहती थी। शायद उसे अपनी गलती का एहसास हो गया था
फिर ? मैंने प्रश्न किया।
उसने मुझे बहुत बड़ा सरप्राइज दिया। इतना कह कर वे फूट-फूट कर रोने लगे।
मैं घबरा गया। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या बोलूँ। कुछ देर तक वे रोते रहे फिर अपने आप को संभाला। फिर बोले- हाँ भाई साहब, वह अकेले ही बिना मुझे सूचित किए बेटी को लेकर एक टैक्सी से आ रही थी। रास्ते में टैक्सी का एक्सीडेंट हो गया। वह और मेरी बेटी मेरे पास न आकर सीधे ऊपर भगवान के पास चली गई।
वे रो रहे थे और कह रहे थे " बहुत बड़ा सरप्राइज दे गई मुझे। मैं स्तब्ध रह गया। मेरे पास अब उन्हें देने के लिये सांत्वना के शब्द भी नही थे। मैं चुप-चाप वापस घर आ गया।
दूसरे दिन, पहले वाला ही नजारा था। वो गली से गुजर रहे थे और बच्चे उन्हें मौसा मौसा कह कर चिढ़ा रहे थे।
किशोरी रमण
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2 comentários
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Very nice👍
वाह, बहुत अच्छा संस्मरण।