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कहानी "वह लड़की -निम्मी"

Writer's picture: Kishori RamanKishori Raman

Updated: Sep 20, 2022


सुबह सुबह ही मैं निकल पड़ा सासाराम के मोहल्ला लस्करीगंज टोला कोठाटोली की ओर। चलते चलते मैं जब मंदोदरी बूढ़ी के दरवाजे पर पहुँचा तो चौक उठा। दरवाजा तो वैसा ही था जैसा पहले था, बस दरवाजे से जिस चौड़े बरामदे में प्रवेश करते थे वहाँ एक टेलरिंग शॉप नजर आ रहा था। एक टेबल पर सिलाई मशीन तथा दीवाल पर सिले, बिनसिले कपड़े टंगे नजर आ रहे थे। पर सबसे ज्यादा मैं यह देखकर चौक उठा कि चबूतरे से लगे चौखट पर करीब बारह-तेरह साल की एक लड़की बैठी थी। वह दूर से हूबहू निम्मी लग रही थी। मैंने अपने सर को झटका। यह भला कैसे हो सकता है ? निम्मी तो करीब पंद्रह साल पहले यहाँ रहती थी और दरवाजे के चौखट पर इसी तरह बैठती थी। तब हमारी भी उम्र कोई पंद्रह सोलह साल की थी। मैंने थोड़ा झिझकते हुए उस लड़की से पूछा- यह मंदोदरी बूढ़ी का घर है न ? वह लड़की बोली- मुझे नही मालूम, फिर वहीं से जोर से बोली, माँ, देखो तो, एक आदमी कुछ पूछ रहे हैं। घर के अंदर से एक अधेड़ औरत निकली और प्रश्नवाचक नजरों से मुझे देखा। उसे देखते ही मैं पहचान गया। वह निम्मी ही थी। मैं पुरानी यादों में खो गया। बचपन के वो भी क्या दिन थे। हमारी मस्ती और शरारतें कभी खत्म ही नही होती थी। खासकर अगर पर्व त्योहार हो तो फिर क्या कहने और खासकर होली में। पहले फागुन महीना के आरम्भ होते ही छेड़छाड़, रंग- गुलाल, कीचड़-स्नान और मटरगश्ती शुरू हो जाती थी। धमाचौकड़ी में आगे तो हम बच्चे ही रहते थे पर हमारे सपोर्ट में और हमें नए-नए आईडिया देने में बड़े भी खूब साथ देते थे। इसमें जो व्यक्ति ज्यादा चिढ़ता था उसे ही लोग ज्यादा चिढ़ाना पसंद करते थे। जो रंगों से डरता था उसे तो दौड़ा दौड़ा कर और पकड़कर रंग लगाया जाता था। अगर रंग खत्म हो गया तो पानी और अंत में नाली का कीचड़। उस समय सब जायज होता था। स्कूल कॉलेज जाने वालों के शर्ट पैंट पर नींब वाली पेन से छीड़की गई रोशनाई की लकीरें गजब ढाती थी। आलू को काटकर उससे बनाए गए ठप्पे जिस पर चोर गदहा खुदा होता था और शर्ट के पीछे लगाने पर यही छप जाता था बड़ा प्रसिद्ध था। हमारे लस्करीगंज कोठाटोली मोहल्ले में एक विधवा बूढ़ी औरत रहती थी। मंदोदरी बूढ़ी नाम से वह प्रसिद्ध थी। अभी तक इस तरह के नाम मैंने रामलीला और रामायण के प्रवचन में ही सुना था अतः मुझे या नाम कुछ अजीब सा लगता था। वह बूढ़ी थी भी बड़ी अजीब। रास्ते में आते जाते अगर गलती से भी कोई उसके घर के दरवाजे पर बने पहुँची यानी चबूतरे पर चढ़ जाए तो वह गालियों की बौछार कर देती। अब दिन में कई बार ऐसा होता कि गली में सामने से बैलगाड़ी या ताँगा आता और उससे बचने के लिए लोग उसके चबूतरे पर चढ़ जाते थे। फिर तो वह सारे खानदान को गाली देती। दुनिया भर के श्राप मंदोदरी बूढ़ी के मुहँ से निकलने लगता। फिर वह बाल्टी और झाड़ू लेकर अपने बरामदे को धोती और गंगा जल छिड़क कर पवित्र करती। यही कारण था कि हमारे मोहल्ले के बहुत से लोग थे जिन्हें मंदोदरी बूढ़ी को चिढ़ाने में मजा आता था। पर वे पर्दे के पीछे रहकर अपना काम करते थे। अगर बकरियों का झुंड गली से गुजर रहा होता तो उसे डरा कर हाँक देते। बकरियाँ डर कर चबूतरे पर चढ़ जाती और फिर मंदोदरी बूढ़ी का प्रलाप शुरू हो जाता। सबको इंतजार रहता था फागुन महीने का। महीना शुरू होते ही मंदोदरी बूढ़ी के दरवाजे पर कभी कूड़ा कभी हड्डी कभी गोबर तो कभी कीचड़ सुबह सुबह मिलते। रात में या भोर में कोई उसके चबूतरे पर इन चीजों को बिखेर जाता। मंदोदरी बूढ़ी जब अपने दरवाजे पर इन चीजों को पाती तो फिर उसका चीखना चिल्लाना, गाली और श्राप देना शुरू हो जाता, और लोग मजे लेते। शाम रात और कभी-कभी सुबह में मंदोदरी बूढ़ी सजग रहती पर अगल बगल वाले और बच्चों की टोली भी सावधान रहकर मौके की तलाश में लगी रहती। ज्योँ ही मंदोदरी बूढ़ी अपने दरवाजे का चक्कर लगा घर के अंदर जाती इशारा पाकर आस-पास छुपे शरारती बच्चे जल्दी से निकलते और फिर धड़ाम। आवाज सुनकर मंदोदरी बूढ़ी घर से लपकते हुए आती और दरवाजे पर गंदगी बिखरा पाकर चिल्लाना शुरु कर देती। पर तब तक तो बच्चे रफूचक्कर हो गए रहते थे।इन शरारतों में मैं भी बच्चों के ग्रुप में शामिल रहता था। होली के चार दिन पहले की बात है। विशेष तैयारी के तहत एक घड़ा मंगाया गया था। उसमें नाले का कीचड़ डालकर उसे तैयार रखा गया था। सुबह-सुबह हम बाल मंडली को उसके दरवाजे पर इसे फोड़ना था। इसका लीडर मैं था। समय यही सुबह के कोई पाँच सवा पाँच बजे थे। बड़ों ने इशारा किया और हम तीन लड़के आगे बढ़े। मेरे हाथ में घड़ा था जिसे पटक कर हम लोग को भागना था। दो लड़के मंदोदरी बूढ़ी की रेकी के लिए रह गए और मैं उसके दरवाजे पर पहुँचा। जब मैं घड़े को उसके दरवाजे पर पटकने ही वाला था कि सहसा मेरे हाथ रुक गए। दरवाजे पर ग्यारह बारह साल की एक मासूम लड़की बैठी हुई थी, सफेद फ्रॉक पहने हुए, मानो स्वर्ग से उतरकर कोई परी सीधे यहाँ पहुँची हो। मैं घड़े के साथ वापस अपने ग्रुप में लौट गया। बड़ों ने हमें सलाह दी कि अभी अपने कार्यक्रम को स्थगित रखो। कुछ देर के बाद जब लड़की घर के अंदर चली जाएगी तो फिर घड़े को पटक आना। हम लोग वहीं छुपकर इंतजार करने लगे। हमारी नजरें दरवाजे की ओर ही थी कि कब लड़की वहाँ से उठे और हम लोग घड़ा उसके दरवाजे पर पटके। करीब पंद्रह मिनट हो गए और हम लोगों का सब्र जवाब देने लगा। हमें उकसाने वाले बड़ों ने कहा, अरे तुम लोगों का मुहँ तो रंगों से पुता है। भला कौन पहचान पाएगा ? और वैसे भी वह लड़की तो बाहर की लगती है, शायद कोई रिश्तेदार है। वह भला कैसे पहचान पाएगी ? अतः तुम लोग जाओ और घड़े को पटक कर आओ। पर वह लड़की तो दरवाजे की चौखट पर बैठी हुई है, कैसे पटकेगें वहाँ ? गन्दगी तो उसके शरीर पर भी पड़ेगी। मेरी यह दलील सुनकर एक बड़े बुजुर्ग ने समझाया। जब तुम घड़ा पटकने लगोगे तो वह लड़की खुद ब खुद दरवाजे से भाग जाएगी और अगर कुछ कीचड़ पड़ भी गया तो भाई होली में तो सब माफ है। हिम्मत करके हम तीन साथी आगे बढ़े। घड़ा अब भी मेरे हाथ में ही था। वहाँ पहुँचे तो लड़की अब भी वही बैठी थी। गोपाल ने मुझे साहस दिलाते हुए कहा- पटक भाई घड़ा, जल्दी पटको। मैंने पटकने के लिए हाथ के घड़े को ऊपर किया, तभी मेरे हाथ रुक गए। उस लड़की की आंखों में कातर बिनती थी और हाथ जुड़े हुए, मानो वह कह रही हो- नहीं, मत पटको। गोपाल बार-बार मुझसे कह रहा था, पटको, जल्दी पटको, पर मेरी हिम्मत उसकी आँखों मे छलछला आये आँसू को देख कर जवाब दे गई। मैं चुपचाप वहाँ से चला आया। दोस्तों और बड़ों ने मेरा बहुत मजाक उड़ाया। मुझे डरपोक और ना जाने क्या-क्या कहा। पर मैंने चुपचाप सब सह लिया। अब आगे यही होता। जब भी उसके दरवाजे पर गंदगी फेंकने का प्रयास होता तो वह छोटी लड़की वहाँ बैठी मिलती। मंदोदरी बूढ़ी ने अपने भाई की बेटी को शायद इसी उद्देश्य से अपने यहाँ बुलाया था। इस तरह मंदोदरी बूढ़ी के दरवाजे पर गंदगी फेंकने का सिलसिला रुक गया था। उस लड़की के बारे में मोहल्ले की औरतें अक्सर बाते करती रहती थी । एक बार मेरी पड़ोस की चाची मेरी माँ को बता रही थी कि मंदोदरी बूढ़ी ने अपनी भाई की बेटी को अपने यहाँ इसलिए लाया था क्योंकि उसकी माँ बहुत पहले ही स्वर्ग सिधार गई थी और उसकी सौतेली माँ उसे बहुत कष्ट देती थी। एक और वाकया मुझे याद आ रहा था। उसे यहाँ आए हुए कुछ महीने हो गए थे और वह बिना नागा अभी भी अपने चबूतरे पर बैठती थी। एक दिन एक पतंग कट कर जा रहा था। बच्चों का हुजूम गली में पतंग के पीछे भाग रहा था जिसमें मैं भी था। मेरे हाथ में एक झाड़ीदार टहनी थी। सबो का प्रयास था कि पतंग उसके हाथ लगे लेकिन पतंग मेरे हाथ लगा। मैंने गर्व से अगल बगल के लड़कों को निहारा जिनके चेहरे पर पतंग ना मिलने के कारण मायूसी नजर आ रही थी। तभी मैं चौक पड़ा। मैं मंदोदरी बूढ़ी के दरवाजे के पास ही खड़ा था और वह लड़की पतंग को लालच भरी नजरों से निहार रही थी। मुझे पता नहीं क्या हुआ जो मैंने लूटी पतंग उसकी ओर बढ़ा दी। पहले तो वह झिझकी, फिर खुशी-खुशी पतंग ले ली और घर की तरफ मुड़ गई। फिर वो सहसा रुक गई और फिर मेरे पास आ गई और पतंग को मुझे वापस करने लगी। मैंने पूछा क्यों ? तो उसने जवाब दिया, मेरे पास तो इसे उड़ाने के लिए न धागा है और न ही लटाई। मैं इसे कैसे उडाऊगी ? मैं चुपचाप अपने घर गया और अपना लटाई और धागा ले आया और उसे दे दिया जिसे उसने खुशी-खुशी ले ली। अगली सुबह जब मैं उसके दरवाजे के पास से गुजर रहा था तो देखा कि वह लटाई धागा सहित सामने नाली में फेंका हुआ है, और पतंग के भी टुकड़े वही बिखरे हुए हैं। वह लड़की वही दरवाजे पर बैठी थी। मुझे देखते ही उसके आँखो से आँसू बहने लगे। वह उठकर घर के भीतर चली गई। मैं समझ गया, मंदोदरी बूढ़ी ने उसे बहुत बुरा भला कहा होगा एवं उससे छीन कर नाली में फेंक दिया होगा। मोहल्ले के पड़ोसियों ने जब मंदोदरी बुआ को सलाह दी कि उस लड़की यानि निम्मी का नाम बगल के मिडिल स्कूल में लिखा दिया जाए तो मंदोदरी बूढ़ी ने साफ इंकार कर दिया। वह बोली, क्लास तीन तक पढ़ाई इसने की है। चिठ्ठी बाचना और लिखना इसे आता है। इससे ज्यादा पढ़कर यह करेगी क्या ? लड़की जात का कम पढ़ा लिखा होना ही अच्छा होता है। पर एक बात उसने अच्छी की कि उसने निम्मी को दोपहर में बगल के सरोज चाची के पास भेजना शुरू कर दिया था ताकि वह सिलाई बुनाई सिख सके। अक्सर उसके दरवाजे के पास से गुजरते हुए हम दोनों एक दूसरे को देखते थे पर बात नहीं होती थी। फिर साल भर के बाद की बात है। एक दिन मैं उसके घर के सामने गली से गुजर रहा था। वह अपने दरवाजे पर बैठी थी। तभी एक आवाज सुनाई पड़ी - सुनो। मै ने चौंक कर देखा, वह निम्मी की आवाज थी। क्या है? मैंने आश्चर्य चकित होकर उससे पूछा। पहले तो उसने इधर उधर देखा कि कोई सुन तो नहीं रहा है फिर धीरे से बोली- कल मैं यहां से जा रही हूँ। कहाँ ? मैंने आश्चर्य से पूछा। अपने बाबा(पिता) के घर। वह मेरी शादी कर रहे हैं न। इतना कह कर वह घर के अंदर चली गई। मैं मुहँ बाये वहीं खड़ा रहा। थोड़ी देर में मुझे होश आया तो चुपचाप घर वापस आ गया। लेकिन उसकी कही बात दिमाग में उमड़ घुमड़ रही थी। उसकी शादी हो रही है, इतनी कम उम्र में। क्यों ? मेरे पास कोई जवाब नहीं था। और किसी से इस संबंध में पूछने की हिम्मत भी नहीं थी। इधर कई दिनों से मुझे अनमना देखकर माँ ने पूछ ही लिया। बिन्नी क्या बात है ? देख रही हूँ, न तो तुम अपनी पढ़ाई पर ध्यान लगा रहे हो न ही बाहर खेलने जा रहे हो। आखिर बात क्या है ? माँ तुमने कुछ सुना ? वह मंदोदरी बूढ़ी की भतीजी है ना उसकी शादी हो रही है। तो ? माँ ने पूछा, इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? हर माँ बाप चाहते है कि बेटी को ब्याह कर गंगा नहा ले, अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो ले। पर माँ वह तो अभी बच्ची है। मैंने माँ से जिरह की। तुम क्यों परेशान हो रहे हो? माँ ने शंका भरी नजरों से मुझे घूरा तो मैं थोड़ा शर्मा गया और घबरा भी गया। मैं जल्दी से वहाँ से खिसक गया। इसके बाद बहुत सारे दिन गुजर गए और निम्मी कभी अपने चबूतरे पर बैठी हुई नहीं मिली। वह अपने बाबा के पास जो चली गई थी, और शायद उसकी शादी हो गई थी। तो इतने दिनों के बाद आज मैं निम्मी से मिल रहा था, और वह भी इस हालात में। वह प्रश्नवाचक दृष्टि से मुझे देखे जा रही थी। मैंने धड़कते दिल से पूछ ही लिया- तुम निम्मी ही हो ना? वह चौक पड़ी बोली हाँ पर आप मुझे नाम से कैसे जानते हैं ? मैंने तो आपको पहचाना नहीं। मैं बोला, आज से करीब चौदह पंद्रह साल पहले इस घर में मंदोदरी बुआ रहती थी और सामने वाले गली के नुक्कड़ वाले घर मे कन्हैया जी किराए पर रहते थे। वे अनुमंडल कार्यालय में काम करते थे। उनका एक लड़का भी था उसका नाम बिन्नी था ...काफी शरारती। उसके चेहरे के भाव बदलने लगे मानो वह कुछ याद कर रही हो। और तभी बोली ओह, तो तुम बिन्नी हो ? शुक्र है कि तुमने मुझे पहचान लिया। तुम चली गई फिर मेरे पिताजी का भी ट्रांसफर यहाँ से हो गया और हम लोग भी यहाँ से चले गए। आज इतने दिनों के बाद मौका मिला तो इधर अपने पुराने दिनों और अपने बचपन को ढूंढने चला आया। वह निशब्द खड़ी थी मानो अपने अतीत में गोते लगा रही हो। फिर उसने एक स्टूल को बाहर बरामदे में सरका दिया मेरे लिए। फिर काउंटर के पीछे की कुर्सी पर बैठ गई। चारों तरफ सिले अधसिले कपड़ों का अंबार लगा था। कपड़ों के बीच वह भी कपड़ों का ढेर ही लग रही थी। फिर वह बोली, माफ करना, मैं तुम्हें अंदर नहीं बैठा सकती। वरना यहाँ तरह-तरह की चर्चाएं शुरू हो जाएगी। समय बदल गया है पर लोगों की मानसिकता नहीं बदली है। स्त्रियों के प्रति सोंच और रवैया अभी भी दकियानूसी और भेदभाव वाला ही है। मैंने पूछ लिया- तुम्हें तो अपने ससुराल में होना चाहिए था, फिर यहां मंदोदरी बुआ के पास क्यो ? पहले तो वह चुप रही फिर बोली, स्त्री की मर्जी कहाँ चलती है ? वह तो धारा में बहते सूखे पत्ते की तरह होती है। अगर किस्मत से किनारे लग जाए तो ठीक वरना अनन्त की गहराइयों में खो जाती है। मुझे महसूस हुआ, उसके अंदर में आग है और साथ में पीड़ा भी। मैं चुप रहा। कुछ देर खामोश रहने के बाद बोली- मेरी शादी एक अधेड़ व्यक्ति से हुई थी। खाता पीता परिवार था। किसी चीज की कोई कमी नहीं थी। बस उन्हें बेटा चाहिए था। बेटे के लिए ही पहली पत्नी और एक बेटी के रहते हुए उन्होंने दूसरी शादी की थी। शादी के चार साल बाद जब मैं गर्भवती हुई तो मेरा खूब ख्याल रखा जाने लगा। पर जब मैंने बेटी को जन्म दिया तो घर के सब लोगों का व्यवहार बदल गया। मानो मुझसे बड़ा पाप हो गया हो। हर बात पर मेरी उपेक्षा होने लगी और मैं उस घर की नौकरानी बन कर रह गई। करीब तीन साल ऐसे ही चला। फिर बेटे की आश लिए मेरे अधेड़ पति स्वर्ग सिधार गए। फिर मेरे लिए तो उस घर के दरवाजे बंद कर दिए गए। मैंने अपने पिताजी को भी खबर भेजी पर उन्होंने मुझे ले जाने से इंकार कर दिया। वह बोले - बेटी की डोली जहाँ जाती है वहीं से उसकी अर्थी उठती है। तुम जैसे भी हो वहीं रहो। वही तुम्हारा घर है। तभी मुझे खबर मिली कि मंदोदरी बुआ बीमार है। मैं बुआ के पास आ गई। बुआ भी लाचार बीमार थी। मेरे यहाँ आने से उन्हें काफी राहत मिली और मुझे भी यहाँ शरण मिल गया। तब से करीब दस सालों से मैं यही हूँ। बुआ के गुजरने और उनका क्रिया कर्म करने के बाद मेरे पास समस्या थी कि खर्च कैसा चले ? तो मुझे सिलाई तो आती थी,अतः यहाँ टेलरिंग की दुकान खोल ली। इसी से मेरा घर चल जाता है। इसी बीच मैंने घर पर ही अपनी पढ़ाई की और प्राइवेट स्कूल से फ़ॉर्म भर कर मैट्रिक की परीक्षा भी पास कर ली। अब कुछ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाती हूँ। मैंने पूछ लिया, बेटी को स्कूल भेजती हो न ? हाँ, हाँ। में चाहती हूँ कि मेरी बेटी खूब पढ़े, लिखे और समाज मे अपना खुद का एक मुकाम हासिल करे । अपने पैरों पर खड़ा हो और पुरुषवादी मानसिकता वाले समाज मे अपने को साबित कर सके। मैंने बातों को आगे बढ़ाते हुए कहा- अब तो समय बदल गया है। मेरी बातों को बीच मे काटते हुए बोली- पुरूषों की मानसिकता आज भी नही बदली है। वे आज जो स्त्रियों का प्रशस्ति गान करते है वह बस उनका नाटक भर है। ताकि उनका असली चेहरा और चरित्र मुखौटे के पीछे छुपा रहे और वे अपनी श्रेष्ठता के दंभ और अपने अहम को बनाये रख सके। आज भी स्त्रियों पर ही तमाम तरह की वर्जनाएं, कर्मकांड और झूठी मान्यताएँ थोपी जाती हैं ताकि वे इन सबो में ही उलझी रहे और पुरुषसत्ता को चुनौती न दे सके। आज देश मे संबिधान है, नियम- कानून है, एक बड़ा बुद्धिजीवी वर्ग भी है फिर भी न जाने कितनी निम्मी, बिमला, सरला घर और बाहर भेदभाव और हिंसा का शिकार होती है और अफसोस कि वह आवाज भी नही उठा पाती। मेरे पास निम्मी के इन बातों का जबाब नही था। हालाँकि मैं निम्मी के विचारों से सहमत था पर मेरी हिम्मत नही हो रही थी कि उसके हाँ में हाँ मिलाऊँ। आखिर मैं भी तो एक पुरुष हूँ.... दंभी, स्वार्थी और पुरुषवादी मानसिकता का पोषक। किशोरी रमण BE HAPPY....BE ACTIVE...BE FOCUSED...BE ALIVE If you enjoyed this post, please like , follow,share and comments. 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2 Comments


Unknown member
Sep 20, 2022

Bahut hi sundar....

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verma.vkv
verma.vkv
Sep 19, 2022

वाह, बहुत सुंदर संस्मरण ।

एक स्त्री के मन के भाव को उजागर करती कहानी।

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