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चाय वाला

  • Writer: Kishori Raman
    Kishori Raman
  • Aug 27, 2021
  • 3 min read

Updated: Sep 19, 2021



आज मै अपनी एक लघु-कथा प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसका शीर्षक है

चाय वाला यह उन दिनों की बात है जब मेरी पोस्टिंग आगरा में थी। अक्सर मैं पटना आते रहता था और वापसी के लिए पटना कोटा एक्सप्रेस पटना जंक्शन से पकड़ता था। चुकि यह ट्रेन अगली सुबह पांच बजे आगरा पहुँचा देती थी अतः मेरे लिए यह काफी सुविधाजनक था। मैं स्टेशन पहुंचा और स्लिपर क्लास के एस 5 के सीट न. 25 पर बैठ गया। चूँकि मेरा लोअर बर्थ था अतः खिड़की वाली सीट थी । ट्रेन अपने समय से खुली और कुछ देर बाद बक्सर स्टेशन पर रुकी। सिर्फ दो मिनट का स्टॉपेज था यहाँ ।

जब ट्रेन चलने को हुई तो सामने प्लेटफार्म पर चाय गरम चाय गरम चिल्लाते हुए एक हाँकर गुजरा। उसके एक हाथ मे चाय की केतली थी तो दूसरे हाँथ में प्लास्टिक का कप। सहसा मुझे चाय पीने की इच्छा हुई और मैंने उसे आवाज देकर बुलाया और पूछा -- भाई चाय कितने का कप दे रहे हो। दस रुपये मालिक । पी कर देखें साहब.....एकदम घर वाला स्वाद मिलेगा। चलो ,फिर दे दो एक कप कहते हुए मैंने पैसे निकालने के लिए अपने पॉकेट में हाथ डाला। फिर पॉकेट टटोलने के बाद बोला , यार रहने दो ....खुदरा नही है मेरे पास। तब तक चाय वाला कप में चाय उड़ेल चुका था, बोला....कितने का नोट है साहब ? सौ रुपये का। क्या तुमहारे पास खुल्ले हैं ? मैंने पूछा। देखता हूं साहब ,होना तो चाहिए ...हाँ पहले ये चाय तो पकड़ो। मैंने चाय ले ली और एक सौ वाली नोट उसे पकड़ाई। तभी ट्रेन धीरे धीरे सरकने लगी। उस चाय वाले ने पॉकेट से नोट निकाल कर गिना तो वो कम पड़ रहे थे। फिर वो अपने कमर में लपेटे गमछे से पैसे निकालने लगा। साथ ही साथ वह ट्रैन के साथ चलने लगा। पैसे उसके हाथ मे थे और देना भी चाहता था लेकिन तबतक ट्रेन की रफ्तार तेज हो चुकी थी। एक तो उसके एक हाथ मे केतली और प्लास्टिक ग्लास था और दूसरे हाथ मे पैसे, अतः वह ट्रेन के रफ्तार से दौड़ नही पा रहा था । ट्रेन आगे बढ़ती रही और वह पीछे छूटता रहा और ट्रेन ज्यो ही प्लेटफार्म से बाहर आई वह आँखों से ओझल हो गया। मैं खिसियाना सा चेहरा लिए चुप-चाप बैठा था तभी बगल में बैठे आदमी जो शक्ल और पहनावे से पढ़े लिखे अमीर व्यक्ति लग रहे थे बोल उठे। भाई साहब गलती तो आपकी है। इन चोट्टे - चुहाड़ो पर बिश्वास नही करना चाहिए था। पहले पैसे ले लेते फिर सौ का नोट देते । ये सब फेरी खोमचे वाले जान बूझ कर ऐसा करते है, लुच्चे... लफंगे.. साले। इस पर मेरे सामने बैठे सज्जन ने उनका समर्थन करते हुए कहा ....ठीक कह रहे हैं भाई साहब आप। मैँ ऐसे कई लोगो को जनता हूँ जो दिन में फेरी लगते हैं और रात में घरों में चोरी करते हैं। सरकार भी तो गरीबी उन्मूलन और सामाजिक बराबरी के नाम पर ऐसे लोगों को ही प्रश्रय देती है। हमारे टैक्स के पैसों को इन चोर -चुहाड़ो और भुखड़ो पर खर्च करती है। इसीलिए तो देश रसातल में जा रहा है... प्राकृतिक आपदा और बीमारियों का प्रकोप हो रहा है। माहौल काफी गंभीर हो गया था। कई लोग उसकी हाँ में हाँ मिला रहे थे पर मैं बिल्कुल शांत था। मैंने कहा , जाने दीजिए , नब्बे रुपए ही तो गया .. चलो यही मान लेता हूं कि मैंने वे रुपये उसे दान कर दिया। इस पर पहले वाले सज्जन बोल उठे । भाई साहब आप जैसी सोच वालो ने ही इनलोगो को सर पे बिठा रखा है।ये सब दया के पात्र नही है ...ये सब तो चोर उचक्के हैं और समाज के कोढ़ हैं। तभी एक आवाज सुनकर हम सब चौक गए। सामने चायवाला खड़ा था और बोल रहा था -- लो साहब जी अपने नब्बे रुपए। वह चायवाला पसीने से लथपथ खड़ा था। उसके एक हाथ मे केतली और ग्लास था और दूसरे हाथ मे छुट्टे पैसे। वह हाँफते हुए बोल रहा था...बड़ी मुश्किल से दौड़ कर सबसे पीछे वाले डब्बे को पकड़ पाया। मैं तो साहब जी प्लेटफार्म पर ही चाय बेचता हूँ इसी लिए दौड़ कर डब्बे में चढ़ने में परेशानी हो रही थी। अब तो यह ट्रेन करीब अस्सी किलोमीटर आगे मुगलसराय जंक्शन पर ही रुकेगी। वहाँ से फिर वापस बक्सर आना होगा। वहाँ सन्नाटा छा गया। कुछ देर पहले तक चाय वाले को कोसने वाले लोग सकते में थे। मुझे एक वात सूझी। मैंने कहा ...भाई जब तुम आ ही गए हो तो तुम्हारी चाय भी तो बिकनी चाहिए। यहां इस केबिन में कुल आठ लोग हैं... सबको चाय पिलाओ और एक चाय मेरी तरफ से तुम भी पियो । फिर हिसाब किताब बराबर हो जायेगा। यह सुनकर उसका चेहरा ख़ुशी से खिल उठा और मेरे मन से आत्मग्लानि का बोझ भी उतर गया। किशोरी रमण।

2 Comments


Unknown member
Feb 09, 2022

bahut hi sundar...

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sah47730
sah47730
Aug 29, 2021

बिल्कुल सही निर्णय था। चाय वाला तो ईनाम के पात्र था ही, जो कि इतनी तवज्जो कर जान पर खेल कर पैसा लौटाने आया था।

अधिकतर ब्यक्ति अपने हिसाब से ही दूसरों को आंकते हैं। वे दूसरों की मजबूरी का कोई आकलन नहीं करते।

सीखभरी कहानी के लिए धन्यवाद दोस्त!

:-- मोहन "मधुर"

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