आज 24 जनवरी है जननायक कर्पूरी ठाकुर जी की जयंती। इस अवसर पर उन्हें शत-शत नमन एवं भावभीनी श्रद्धांजलि।
कर्पूरी ठाकुर एक प्रखर स्वतंत्रता सेनानी, कर्मठ शिक्षक समाज के पुरोधा, गरीबों शोषितों और दलितों के अधिकारों के रक्षक और मसीहा थे।
राजनीतिक एवं सामाजिक कार्यों में इनका योगदान देश और प्रदेश के लिए अद्वितीय रहा है। कर्पूरी जी महात्मा फुले,बाबा साहब अंबेडकर,डॉ लोहिया और जयप्रकाश नारायण आदि की श्रृंखला में अंतिम कड़ी थे।
वे ताउम्र गरीबों, पिछड़ों व शोषितों के लिए लड़ते रहे। वे सदा समाज के अंतिम पायदान पर रहने वालों के अधिकारों के लिए खड़े रहे। उनका जीवन संघर्षमय रहा। वे आधुनिक बिहार के निर्माता थे। उन्होनें अपना सफर शून्य से शुरू करके राज्य के सर्वोच्च स्थान को प्राप्त किया साथ ही लोगों के दिलों पर भी राज किया और जननायक कहलाए। कालांतर में वे समाजवादी राजनीति के सर्वाधिक देदीप्यमान सितारे बन कर उभरे।
इनका जन्म 24 जनवरी 1924 को समस्तीपुर जिला के पितौन्झिया गाँव जो अब कर्पूरीग्राम के नाम से जाना जाता है वहाँ एक नाई जाति में हुआ था। पिता का नाम श्री गोकुल ठाकुर माता का नाम श्रीमती राम दुलारी देवी तथा पत्नी का नाम श्रीमती फुलेश्वरी देवी था।
आज के दौर में जब राजनीतिक मूल्य, निष्ठा, ईमानदारी एवं सैद्धांतिक प्रतिबद्धता सवालों के घेरे में है, कर्पूरी ठाकुर पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक दिखते हैं और सवाल तो यह है कि उनके नाम की माला जपने वाले उनकी सादगी और ईमानदारी भरे रास्तों पर चलने का साहस क्या कर पाएंगे ? तो इसलिए भी आज कर्पूरी जी जैसे नेताओं को याद करने की जरूरत है। उनका नाम महान समाजवादी नेताओं की पांत में आता है जिन्होंने निजी एवं सार्वजनिक जीवन दोनों में आचरण के उच्च मानदंड स्थापित किए थे। सादगी और ईमानदारी का जो आदर्श उन्होंने प्रस्तुत किया वह एक किंबदंती बन चुका है। उनके जैसे राजनीतिज्ञ आज अविश्वसनीय है। उनका पूरा जीवन सिद्धांतों पर आधारित रहा। वे समाजवादी लोक कल्याणकारी विचारधारा के प्रवर्तक थे।
आइए आज उनके कुछ ऐतिहासिक फैसलों पर चर्चा करते हैं जो प्रदेश की राजनीति में मील के पत्थर साबित हुए।
1967 ईस्वी में शिक्षा मंत्री के रूप में उन्होंने मैट्रिक से अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त कर दी थी।
1970-71 में मुख्यमंत्री रहते हुए हाई स्कूलों का सरकारीकरण किया था।
1977-79 में अपने दूसरे मुख्यमंत्री काल में बिहार में मैट्रिक तक की परीक्षा निशुल्क कर दी और मिशनरी स्कूलों में भी हिंदी में पढ़ाई शुरू करवाया एवं वहाँ भी गरीब बच्चों की स्कूल फीस माफ करवाई। राज्य में उर्दू को दूसरी राजकीय भाषा का दर्जा दिलवाने का काम किया।
राज्य के सभी विभागों में हिंदी में काम करने को अनिवार्य बना दिया।
पांच एकड़ वाले किसानों का मालगुजारी टैक्स माफ कर दिया।
1978 में ओबीसी के लिए आरक्षण लागू करने वाला बिहार देश का पहला राज्य बना साथ में महिलाओं के लिए और गरीब सवर्णों के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था को लागू किया गया।
उन्होंने गरीब व पिछड़ी जातियों को मानसिक तौर पर सामाजिक हिस्सेदारी पाने के लिए संघर्ष करने को प्रेरित किया।
मुख्यमंत्री सचिवालय में चतुर्थ वर्गीय कर्मचारियों को लिफ्ट के उपयोग की इजाजत दिलवाई।
बिहार का यह महान कर्मयोगी सपूत 64 साल की उम्र में 17 फरवरी 1988 ईस्वी को दिल का दौरा पड़ने से हमलोगों से विदा हो गया पर आज भी उनके कर्म, उनके उपदेश और उनके बताए रास्ते हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं। वे हमारे दिलों में आज भी जीवित है। वैसे युगपुरुष को नमन है, शत शत नमन।
आइए उनके जीवन से संबंधित कुछ चुनिंदा प्रसंगों को जानते हैं।
कर्पूरी ठाकुर जी 1952 में विधायक बन गए थे। एक प्रतिनिधिमंडल के साथ उन्हें ऑस्ट्रिया जाना था। उनके पास कोई कोट नहीं था अतः एक दोस्त से एक कोट माँगी जो फटा हुआ था। वहां से वे युगोस्लाविया गये तो मार्शल टीटो ने उनके फटे कोट को देखकर उनको एक कोट भेंट किया।
एक बार प्रधानमंत्री चरण सिंह उनके गाँव वाले घर गए तो दरवाजा इतना छोटा था कि चौधरी जी के सिर में चोट लग गई। जब उन्होंने कहा कि कर्पूरी इसको जरा ऊंचा करवाओ, तो जवाब में कर्पूरी जी ने कहा कि जब तक बिहार के गरीबों का घर नहीं बन जाता मेरा घर बन जाने से क्या होगा ?
कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद हेमवती नंदन बहुगुणा उनके गाँव गए थे। बहुगुणा जी कर्पूरी ठाकुर के पुश्तैनी झोपड़ी को देख कर रो पड़े थे।
वे अपनी बेटी की शादी मंदिर में करना चाहते थे लेकिन पत्नी के विरोध के कारण गाँव वाले घर से ही सादे ढंग से किया। उस शादी में किसी राजनीतिज्ञ, नौकरशाह या गणमान्य ब्यक्ति को आमंत्रित नही किया गया था।
फटा कुर्ता, टूटी चप्पल और बिखरे बाल कर्पूरी ठाकुर की पहचान थे, उनके पास बस एक जोड़ी धोती कुर्ता हुआ करते थे। एक बार एक मीटिंग के दौरान चंद्रशेखर ने जब उनके फटे कुर्ते को देखा तो काफी दुखी हुए। वहीं उन्होंने अपने कुर्ते को अपने हाथों से पकड़ कर सामने की ओर फैलाया और बारी-बारी से सभी उपस्थित नेताओं के पास गये और बोले कि कुर्ता फंड में डाल दीजिए। तुरन्त ही कुछ सौ रुपये इकट्ठे हो गए। उसे उन्होंने समेटकर कर्पूरी जी को देते हुए हिदायत दी कि इससे कुर्ता धोती ही खरीदिएगा किसी और काम में मत लगाइएगा। पर कर्पूरी जी ने उस पैसे को मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा करा दिया।
जब वे मुख्यमंत्री थे तो उनके बहनोई उनके पास पहुँचे कि कहीं काम पर लगवा दीजिए। उन्होंने अपने पॉकेट से पचास रुपए उन्हें देते हुए कहा कि इससे उस्तरा खरीद कर अपना पुशतैनी धन्धा शुरू कीजिये।
अस्सी के दशक की बात है जब कर्पूरी ठाकुर जी विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता थे।उन्हें आवश्यक कार्य से अपने आवास पर जाने की आवश्यकता पड़ी। उन्होंने साथ के विधायक से उसकी कार माँगी। उस विधायक ने अपनी गाड़ी देने से मना कर दिया और कहा कि उसमे तेल नहीं है, साथ ही उसने ये भी कहा कि आप अपनी गाड़ी क्यों नहीं खरीद लेते हैं ? वे दो बार मुख्यमंत्री और एक बार उपमुख्यमंत्री रहने के बावजूद भी गाड़ी नहीं खरीद पाए थे और पैदल या रिक्शे पर ही चला करते थे।
यह उस समय की बात है जब कर्पूरी जी मुख्यमंत्री थे। उनके क्षेत्र के कुछ सामंती जमींदारों ने उनके पिता को सेवा के लिए बुलाया। वे बीमार होने के नाते नहीं गए तो जमींदारों ने अपने लठैतों से उन्हें मारपीट कर लाने को कहा। इसकी सूचना किसी प्रकार जिला प्रशासन को लगी तो प्रशासन ने उन लठैतों को बंदी बना लिया। कर्पूरी ठाकुर ने प्रशासन से उन बंदियो को बिना शर्त छोड़ने को कहा। उन्होंने कहा कि इस प्रकार से पता नहीं कितने असहाय लाचार एवं शोषित लोग प्रतिदिन लाठिया खाकर दम तोड़ते हैं। कहाँ तक और किस-किस को बचाओगे ? क्या सभी मुख्यमंत्री के मां-बाप हैं ? क्या इन्हें इसलिए दंडित किया जाए कि इन्होंने मुख्यमंत्री के पिता को उत्पीड़ित किया है ? सामान्य जनता को कौन बचाएगा ? अगर कुछ करना ही है तो जाओ, प्रदेश के कोने-कोने में शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ अभियान चलाओ, तब माने।
किशोरी रमण
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very nice....
भावभीनी श्रद्धांजलि।