गाँव - देहात में ये कहावत अक्सर सुनने को मिलता है कि कमजोर की लुगाई, सबकी भौजाई।
ठीक यही बात बैंक के प्रोबेशनरी ऑफिसर पर भी लागू होता है। जब तक कन्फर्म नही हो जाते तब तक सबसे पहले शाखा में आना, सबसे अंत मे जाना, मैनेजर जो भी काम कहे, जहाँ और जिस भी काउंटर पर बिठाए, बिना ना नुकर के सब करते जाना होता है।
तो जनाब, जब तांत नगर शाखा में मैं प्रोबेशन पीरियड में था तो एक दिन मुझे फरमान मिला कि कल दस बजे मंडल कार्यालय राँची में हाज़िर होना है। मैं ठीक दस बजे मंडल कार्यालय राँची में हाज़िर हो गया। मैनेजर के टेबल पर कोई सूंदर सी औरत बैठे थी। जब उन्होंने पूछा कि कैसे हो ? तो मैं चौक गया। उस समय ( अगस्त 1985 ) केनरा बैंक में हिंदी बोलने वाले या बिहारी लोग बहुत मुश्किल से मिल पाते थे। बाद में पता चला कि वह मैडम मंजू तिवारी हैं जो राजभाषा अधिकारी के रूप में बैंक जॉइन किया था तथा अभी मैनेजर है।
उन्होंने पहले मुझे चाय पिलाई फिर एक लेटर दिया और कहा। आपको डेपुटेशन पर कटारी शाखा भेजा जा रहा है। आप कल वहाँ के मैनेजर को रिलीव कर के शाखा का चार्ज लेगें और जबतक कोई अगला आदेश नही मिलता तब तक वहाँ काम करेंगे। मैं कुछ कहना चाहता था लेकिन मैडम ने मुझे रोकते हुए कहा, कोई अगर मगर नही। अभी जब तक किसी स्थायी प्रवन्धक की पोस्टिंग नही हो जाती तब तक डेपुटेशन से ही काम चलाना है। पंद्रह दिनों के बाद मैं किसी दूसरे प्रोबेशनर को भेज कर तुम्हे रिलीव करवा दूँगी। फिर उन्होंने मुझे एक अन्य स्टाफ के पास जो उस शाखा से परिचित था भेज दिया ताकि वो मुझे वहाँ कैसे जाना है यह बता सके।
तो जानकारी के अनुसार मुझे राँची से स्टेट ट्रांसपोर्ट की बस से जो रात में नौ बजे खुलती थी शेखपुरा पहुंचना था (उस समय शेखपुरा मुंगेर जिले का एक सबडिवीजन था) और वहाँ से सात किलोमीटर की दूरी रिक्शा या तांगे से तय करना था क्योकि रास्ता टूट फूटा था और बीच मे एक बरसाती नदी भी थी जिसपर पुल नही था।
शाम को मैंने राँची मेन रोड में एक होटल मे खाना खाया। चुकि मेरे जूते फट रहे थे अतः सरदार बूट हाउस से एक थोड़ा हाई हील वाला अच्छा सा जूता भी खरीदा। और फिर बस स्टैंड में पहुँच गया। नौ बजे बस खुल गई। बस ठीक पांच बजे शेखपुरा पहुँच गई। बाहर अभी हल्का अंधेरा था तथा कहीं आस पास बारिश हुई थी अतः हवा में ठंढक भी थी। मैं जैसे ही बस से बाहर आया, कुछ रिक्शे वालो ने घेर लिया और पूछने लगे "कहाँ चलना है साहब" |
जब मैंने कहा - कटारी तो सब चुप हो गये। कोई वहाँ जाने को तैयार नही था। तभी एक अन्य रिक्शा वाला पहुंचा और कटारी के लिए तैयार हो गया पर भाड़ा बीस रुपये बोला जो उस समय के हिसाब से काफी ज्यादा था। चुकि मेरे पास विकल्प नही था अतः मैं तैयार हो गया।
करीब दो ढाई किलोमीटर चलने के बाद टूटा फूटा रोड एक नदी के पास जाकर समाप्त हो गया। नदी में पानी करीब तीन से चार फीट रहा होगा और लोग पानी मे घुस कर इसे पार कर रहे थे क्योंकि नदी पर पुल नहीं था। पानी देखते ही रिक्शा वाला चौक कर बोला। साहब जी लगता है रात में आस पास बारिस हुआ है इसी लिए नदी का पानी काफी बढ़ गया है, नही तो एक दो फीट से ज्यादा पानी नही रहता है। अब तो रिक्शा नदी के पार नहीं जा सकता है।
मै थोड़ा परेशान हो गया, बोला... यार ,अगर तुम पहले ही बता देते कि पानी मे रिक्शा पार नही होगा तो मैं तांगा ले लेता। अब मैं क्या करूँ ?
रिक्शा वाला बोला - मैं आपका बैग उठा लेता हूँ। आप अपने पैंट को ऊपर चढ़ा लीजीए और मेरे पीछे पीछे आईये। मैं आपको नदी पार करा देता हूँ ,फिर आप पैदल चले जाना। सामने वाला गाँव अगबिल और चाड़े है औऱ उसी के बाद कटारी है। मैंने देखा लोग बाग आराम से नदी पार कर रहे है । कहीं घुटनों तक तो कहीं जांघों तक पानी है। मेरे पास और कोई चारा नही था। मैंने अपने पैंट को जांघों तक ऊपर चढ़ाया और जूतों को खोल कर अपने हाथों में लिया। रिक्शा वाले ने मेरा बैग उठा लिया और मैं उसके पीछे पीछे नदी में उतर पड़ा। पानी मे उतरते ही ठंड और डर से कंपकपी सी महसूस हुई ( क्योंकि मैं तैरना नही जानता था)। पानी की धारा नदी के बीच आते आते तेज हो गई। चूँकि मैं नदी का आधा हिस्सा पार कर चुका था अतः अब डर कुछ कम हो गया था। तभी सामने से एक आदमी आता दिखा। जब वह मेरे करीब आ गया तो उससे टक्कर न हो जाय यह सोच का मैं करीब दो फीट अपने बायीं ओर खिसक गया। और तभी भूचाल सा आ गया और मैं गर्दन तक पानी मे डूब गया और मुझे लगा की पानी की लहरें मुझे और गहरे पानी की ओर खींच रही है। मेरे मुहँ से डर के मारे आवाज भी नही निकल पा रहा था । तभी वह ब्यक्ति जिससे टक्कर बचाने के लिए मैं बायीं ओर खिसका था ने झपट कर मेरा हाँथ पकड़ा और अपनी ओर खींचा। और अब मैं पुनः तीन फीट पानी मे खड़ा था। तब तक लोगो की भीड़ लग चुकी थी। उस ब्यक्ति ने मुझे सहारा देकर नदी पार करा दिया। मैंने हाँथ में जो जूते पकड़ रखे थे वे भी पानी मे बह गये पर चुकि पानी का बहाव तेज नही था अतः वे ज्यादा दूर नही जा सके और नदी में नहाने वाले बच्चो ने उसे पकड़ कर मुझे सौप दिया। नदी पार किनारे पर मेरा बैग रख कर रिक्शा वाला बिना पैसा लिए डर के मारे भाग चुका था। उस आदमी ने कहा , जब नदी सुख जाती है तो दोनों किनारों से बालू और मिट्टी काट कर सड़क पर डाली जाती है अतः दोनों किनारे बड़े बड़े गढ़े बन जाते है। चुकि हमे मालूम है इस लिए किनारे नही बल्कि हमलोग बीच मे चलते है।
कुछ देर में जब मैं सामान्य हुआ तो भींगे कपड़ो में ही अपना बैग उठा कर पैदल ही चल पड़ा। करीब एक किलोमीटर चलने के बाद अगबिल गाँव आया। लोगो ने बताया कि यहाँ से करीब तीन किलोमीटर आगे कटारी गांव है। अगबिल तक तो रास्ता ठीक था पर आगे रास्ता बहुत ही खराब था। रोड बनाने के लिए कभी पत्थर के छोटे टुकड़े बिछाए गये थे जो अब पूरी तरह निकल गए थे। मेरे जूते भींग चुके थे इसलिए मैं नंगे पैर ही चल रहा था । कंधे पर बैग और हाँथ में भींगे जूते, और मैं धीरे धीरे आगे बढ़ रहा था। कुछ दूर चलने के बाद चूँकि पत्थर पैर में काफी चुभ रहे थे तो मैंने भींगे जूते ही पहन लिए। करीब ढाई घंटे चलने के बाद मैं साढ़े नौ बजे कटारी पहुँचा तब तक मेरे कपडे पूरी तरह सूख चूके थे। गाँव के बाहर ही एक पक्का मकान था जिसमे केनरा बैंक का बोर्ड नजर आ रहा था।
मैं शाखा में घुसा तो बेंच पर तीन चार लोगों को लुंगी और गंजी में बैठे हुए पाया। मैंने पूछा - मैनेजर साहब कहाँ है ?
एक सज्जन ने अपना परिचय देते हुए कहा कि मैं बी बी ठाकुर मुंगेर ब्रांच में ऑफिसर हूँ और अभी यहाँ डेपुटेशन पर मैनेजर।
जब मैंने उन्हें बताया कि मैं उन्हें रिलीव करने आया हूँ तो वे खुशी से उछल पड़े मानो उन्हें नरक से छुटकारा मिला हो। उन्होंने पी टी ई को बुलाया और बोले " देखो नये साहब आये है , अब इनका ख्याल रखना है "
पी टी ई मुझे बगल के कुआँ पर ले गया। रस्सी बाल्टी से पानी निकाल कर मुझे नहलाया और किसी के घर से ला कर रोटी सब्जी खिलाया। जब मैंने ठाकुर जी से कहा कि आप यहाँ रहते कहाँ है तो बोले कि यहाँ कोई दूसरा पक्का मकान नही है इसलिए मैं तो शाखा में ही रहता हूँ अब आप भी यहीं रहना।
शाम को जब वो चलने को हुए तो मैंने कहा , इस शाखा के बारे में या स्टाफ के बारे कोई विशेष बात बताना चाहेंगे तो उन्होंने कुछ सोचते हुए कहा... शाखा में तो अभी कोई काम ही नही है अतः इसकी चिंता नही करनी है। हाँ अगर चिंता करनी है तो ...और वे इतना कह कर चुप लगा गये।
थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोले यहाँ नहाने के लिए तो कुआँ है पर शौचालय नही है। शौच के लिए तो खेतो में ही जाना होगा पर इस बात का ध्यान रखियेगा कि यहाँ खेतों में साँप बहुत हैं।
किशोरी रमण
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Very nice story.....
वाह! रोमांचकारी संस्मरण। ग्रामीण शाखा का रोमांचक अनुभव। सरकारी बैंक और ग्रामीण बैंक में अंतर कहाँ रह गया है।
बल्कि ,बहुत सारी सरकारी बैंक की शाखाएँ तो ग्रामीणबैंक से भी बदतर जगह पर हैं।
:-- मोहन"मधुर"
बहुत ही भयानक अनुभव ।
ज़िन्दगी में ऐसे पल भी आते हैं ।
आपने कटारी ब्रांच की बखुबी वर्णन किया है।अभी तो हालात मे बहुत परिर्वतन आगया है