जिस तरह से हांथी के दो दांत होते है एक खाने के लिए और एक दिखाने के लिए। ठीक वैसे ही आज समाज मे ज्यादातर इन्सान दो चेहरे वाले होते हैं। उनका एक चेहरा दिखाने के लिए होता है तो दूसरा असली चेहरा । आज समस्या यही है कि हम बस दुसरो में कमी निकालते हैं, दुसरो को उपदेश देते हैं पर हमें खुद अपनी कमी नजर नही आती और न ही उन उपदेशो पर खुद अमल करते है जिसकी अपेक्षा हम दूसरो से करते है। इन्ही सब विडंबनाओं का चित्रण मैंने अपनी कविता " दो चेहरे वाले इन्सान " में करने का प्रयास किया है। आशा है आप सब इसे पसन्द करेंगे ।
दो चेहरे वाले इन्सान
(1)
समाजवाद की कब्र पर
रोता हुआ इतिहास
देख रहा है
उन दो चेहरे वाले इन्सानों को
जो देश का कर्णधार बनते हैं
सभा और सोसायटियो में
बड़ी बड़ी बातें करते हैं।
दूसरों को देशभक्ति सिखाते हैं
और खुद
बैंक बैलेंस के फेरे में
कुर्सी के घेरे में
सब कुछ भूल जाते हैं
ऊँचे आदर्शो की चिता
आपने हाथो जलाते है।
(2)
समाजवाद की कब्र पर
रोता हुआ इतिहास
देख रहा है
उन दो चेहरे वाले इंसानो को
जो काला धंधा करते हैं
और अपने काले चेहरे को
मुखौटे के पीछे
छुपाये रखते हैं।
जो ऐशो आराम की
जिंदगी जीते हैं
और
लाखो इंसानो की किस्मतों को
अपनी तिजोरियों में बंद रखते हैं।
(3)
समाजवाद की कब्र पर
रोता हुआ इतिहास
देख रहा है
उन दो चेहरे वाले इंसानो को
जो धर्म का ठेकेदार बनते हैं
कौम और मजहब के नाम पर
इंसानो के बीच
नफ़रत की दीवार खड़ा करते हैं।
(4)
समाजवाद की कब्र पर
रोता हुआ इतिहास
देख रहा है
उन दो चेहरे वाले इन्सानों को
जो कर्तब्य को भूलकर
अधिकारों की मांग करते हैं
जो नारो पे बहल जाते हैं
और हर समस्या का समाधान
बंद और हड़ताल समझते हैं।
किशोरी रमण
bahut hi sundar...
प्यारे दोस्त!
समाज में फैली बुराईयों को इंगित करती हुई कविता जो दोहरे चरित्र के ब्यक्तियों को आईना दिखा रहा है।
रचना समाज सुधार की आवश्यकता की ओर इशारा कर रहा है।
धन्यवाद!
मोहन "मधुर"
Truth and reality is there in your rachna.