एक प्रश्न जो अक्सर मेरे जेहन में आता है कि क्या बातों की खूबसूरती शब्दों में होती है ? अगर हाँ तो वैसी बहुत सारी बातें जो बिना शब्दों के मौन रह कर संप्रेषित की जाती है उसकी सुंदरता का आकलन कैसे होता है ?
वैसे भी देखा जाए तो मौन तो विचारों से मुक्ति है। मौन रह कर ही अपने अंदर झाँका जा सकता है। अपनी अंतरात्मा से संवाद किया जा सकता है। प्रसिद्ध कवि अज्ञेय जी ने लिखा है-- मौन भी अभिव्यंजना है/ जितना तुम्हारा सच है/ उतना ही कहो।
मौन की जरूरत वहाँ पड़ती है जहाँ व्यक्ति भावनाओं के चरम पर होता है। तब वहाँ शब्द उन गहन भावनात्मक क्षणों में निरर्थक हो जाते हैं। जब हमारी मनः स्थिति जटिल होती है तब भी हमारे शब्द असहाय हो जाते हैं।
तो हम कह सकते हैं कि बोलने के सुख से कहीं बड़ा मौन का सुख होता है बशर्ते उस मौन के भीतर, अपने ही साथ आंतरिक संवाद होता रहे। यह सही है कि पीड़ा का कारक बाहरी हो सकता है, पर उसकी अनुभूति तो आंतरिक ही होती है और उस अनुभूति के सच को हमारे सिवा भला दुनिया कैसे समझ पाएगी ? इसे यूँ कहा जा सकता है कि आंतरिक अनुभूति को जीने के लिए भी मौन की आवश्यकता होती है ना कि शब्दों की। हाँ, हमें एक और बात का ध्यान रखना चाहिए , वह यह कि हमे मौन से हिसाब नहीं माँगना चाहिए। क्योंकि एक तो वह मिलता नहीं है और दूसरे यही माँगने की प्रक्रिया हमें अंदर से खाली कर देती है। हमें अपने समय के विस्तार से विस्थापित कर देती है। जब माँगने पर भी कुछ नहीं मिलता है तो मन का धिक्कारना स्वाभाविक ही है।
किसी दार्शनिक ने ठीक ही कहा है कि कुछ बातों की खूबसूरती इसी में है कि उसे कभी अभिव्यक्त ही ना किया जाय। सघन प्रेम का क्षण हो या गहरी पीड़ा का, उसे किसी से बाँटा नहीं जा सकता। उसे मन के बाहर लाते ही उसका सौंदर्य कलुषित हो जाता है। दुख का भी और सुख का भी। उसे यूँ ही छोड़ दिया जाना चाहिए - मन के किसी कोने में, वैसा का वैसा। यही उस क्षण की सुंदरता है।
और अंत में एक सलाह - कि कुछ अनुभव को रहने दीजिए उसी रूप में, बिना छेड़े, मौन के आवरण में। सहेजने की इसी सुंदरता से जीवन तैयार होता है।
किशोरी रमण
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वाह, मौन के बारे में सही विचार।
Very nice....