यह जिंदगी भी बड़ी अजीब है। जब किसी चीज की जरूरत होती है तो वह मिलता नहीं है और जब उस वस्तु की उपयोगिता जिंदगी में नहीं रहती है तो बहुत मिलता है। इतना ज्यादा कि समझ में नहीं आता कि उसका उपयोग हम कैसे करें।
जब भूख होती है तो खाना नहीं होता और जब खाना होता है तो भूख खत्म हो जाती है। बड़े परिवार में अक्सर कमरे कम पड़ जाते हैं और छत या बरामदे में सोना पड़ता है। लेकिन जब आदमी जतन कर,मेहनत कर बड़ा घर बनाता है ताकि सभी के लिए अपने कमरे हो तब तक काफी देर हो चुकी होती है और तब तक उसके साथ रहने वाले लोग ही उसके साथ नहीं होते।
जब हम बच्चे थे तो बहुत सुखी थे, हर चिंता फिक्र से दूर। थोड़े बड़े हुए और पढ़ाई शुरू हुई तब गुरुजी के थप्पड़ और उनकी छड़ी का थोड़ा डर अवश्य रहता था लेकिन फिर भी हमारी मस्ती, खेलकूद और प्रकृति संग हमारी ऑंख मिचौली जारी रहती थी। पर ज्यों ज्यों हमारी उम्र, हमारा कद और हमारा दिमाग बढ़ता गया त्यों त्यों हमारी मस्ती और खुलकर जीने का सुख छोटा होता गया। हमारे दुख और असंतोष भी हमारे कद और उम्र के साथ बढ़ते गये।
हाँ, इसे ज़िन्दगी की विडंबना ही कहेंगे कि बड़ा आदमी बनने , आलीशान बंगला, कार और इज्जत कमाने की चाहत ज्यो ज्यो बढ़ती गई, रिश्ते-नाते सिमटते गये और अपनों से दूरी बढ़ती गई। और अब इतना कमा लिया, इतना बड़ा घर बना लिया, इतनी बड़ी बड़ी गाड़ियाँ खरीद ली कि समझ ही नही आ रहा है कि इन सबो का करे तो क्या करें ?
अब क्या करे इन सुख सुविधाओं का ? क्योंकि जिन्हें ये सब भोगना था, मस्ती करनी थी, समय के चक्र में उनका बचपन, जवानी, भूख और नींद सब गायब हो चुका है। भला आरामदेह गद्दे नींद ला सकते है क्या ? स्वादिष्ट व्यंजन भूख जगा सकते है क्या ? सुगंधित लेप और प्रसाधन सामग्री जवानी लौटा सकते है क्या ? तो फिर भला ये सब हमारे किस काम का ?
कुछ ही दिनों पहले अखबारों में एक खबर पढ़ने को मिली थी। राजधानी दिल्ली के एक पॉश इलाके के एक आलीशान बँगले में एक बूढ़ी औरत अकेली रहती थी। बेटा बहू अपने परिवार के साथ विदेश में था। आरंभ में तो साल दो साल पर कुछ दिनों के लिए बेटा बहु अपनी मां के पास आते थे। बाद में बेटे बहु के अपने बाल बच्चे हुए और उनकी ब्यस्तता बढ़ती गयी और माँ से मिलने के लिये आने की संख्या घटता गया। विगत तीन सालों में अपनी व्यस्तता के कारण एक बार भी वे लोग दिल्ली अपनी माँ के पास नहीं आ पाए। हाँ, कभी-कभी फोन पर उनलोगों की माँ से बात हो जाया करती थी। इधर दो-तीन महीनों के बाद जब बेटे ने माँ को फोन लगाया तो फोन नहीं उठा। कई बार कोशिश की लेकिन असफल रहने पर दिल को खटका हुआ। कहीं माँ बीमार तो नहीं पड़ गई है ? बहुत मुश्किल से अपने पड़ोसी का फोन नंबर प्राप्त किया और उनको फोन कर उनसे आग्रह किया कि वे उनकी माता जी की खोज खबर लें। पड़ोसी जब उस बँगले पर पहुँचा तो उसका दरवाजा अंदर से बंद था। जब बहुत खटखटाने के बाद भी दरवाजा नहीं खुला तो उस पड़ोसी ने पुलिस को इत्तला दी। पुलिस के सामने घर का दरवाजा तोड़ा गया।
अंदर का दृश्य बड़ा भयावह था। माता जी की मृत्यु शायद दो या तीन महीना पहले ही हो चुकी थी। बिस्तर पर उनका शरीर सड़ गल गया था। उससे बदबू आ रही थी। इतना बड़ा घर, इतनी दौलत और शोहरत, इतने रसूख वाले बेटे-बहु उस माँ के काम न सके। यह शरीर तो मिट्टी का है और मिट्टी में ही मिलना इसकी नियति है लेकिन इस तरह ? क्या कहेंगे इसे ?
अंत में, मैं बस यही कहना चाहूँगा कि जब ब्यक्ति किन चीजों से उसे खुशी मिल सकती यह सोंचने के विपरीत जब यह सोचने लगता है कि इन वस्तुओं के बिना भी खुश रहा जा सकता है तो सही अर्थों में वह प्रकृति के पास पहुंच जाता है।
सुखों की मृग मरीचिका में फ़सनें और जीवन भर संसाधन जुटाते रहने की होड़ ही सभी प्रकार के दुखों का कारण है और सादगी का रास्ता हमें कई मुश्किलों और तनाव से बचाता है।
किशोरी रमण
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Bahut hi Sundar....
जीवन की सच्चाई से रु ब रु करा दिया ।
इस तरह की दुखदाई घटना समाज में बढ़ने लगी है। क्योंकि जब हमारे बच्चे बढ़ती उम्र मे होते हैं उन्हें ऊँचे ऊँचे सपनों की सैर कराते हैं अधिक से अधिक पैसा कमाने ,बड़े पद पर पहुँचने के अरमान मन मस्तिष्क में भरते हैं। परिवार और समाज से जुड़ाव का मूल्य उनके मन में गौण हो जाता है। अपने पद और कार्यों की ब्यस्तता के आगे उनकी एक नहीं चल पाती यह भी एक कारण है।
इसके सुधार के लिए सर्विस के शर्तों में बदलाव की आवश्यकता है। ब्यवस्था के ऐटीच्यूड में परिवर्तन आवश्यक है।
:-- मोहन"मधुर"