रिश्तों की नई परिभाषा
पूजा को तो समझ मे ही नही आ रहा था कि वह आज कौन सा ड्रेस पहने। रोज तो स्कूल ड्रेस में ही स्कूल जाना होता था अतः कोई विकल्प ही नही होता था पर आज सबको ये छूट मिली हुई थी कि स्कूल ड्रेस के अलावा अपने मनपसंद ड्रेस में भी स्कूल आ सकती है । आज उसके स्कूल के दसवीं के क्लास को लोकल टूर प्रोग्राम के तहत बाहर घूमने जो जाना था। वह अलमीरा में रखे अपने कपड़ों को उलट पुलट रही थी तभी उसे एक पीली सी ड्रेस नजर आयी। अरे...यह तो दादी का दिया ड्रेस है जो उन्होंने मेरे पिछले जन्मदिन पर मुझे गिफ्ट किया था। मैं तो इसे भूल ही गयी थी। उसने उस ड्रेस को बाहर निकाला। ड्रेस को देखते ही उसे दादी की याद आई और उसे दादी पर गुस्सा भी आया। यह भी कोई बात हुई, आठ महीने से ज्यादा हो गए उनको अपने रिश्तेदारी में गये हुए। वह तो वही जाकर जम गई है। पहले फोन पर उनसे बात भी हो जाती थी पर अब तो वो फोन भी नही करती है। इधर से लगाओ तो फोन स्विच ऑफ आता है। पहले तो उसने गुस्से में आकर ड्रेस को एक तरफ रख दिया लेकिन फिर वह बोली ,नहीं... नहीं, मेरी दादी बहुत अच्छी है। जरूर उनकी कोई मजबूरी होगी जो वे मुझसे बात नही करती और न ही यहाँ आ रही हैं। उसने वही ड्रेस पहना और माँ को दिखाने गई। माँ ..माँ, देखो तो, इस ड्रेस में मैं कैसी लग रही हूँ ? माँ ने उसे दादी के दिये ड्रेस में देखा तो खीज कर बोली और कोई ड्रेस नही मिला तुम्हे, गाँव की देहाती लड़की लग रही हो। फिर वो स्कूल वालो पर भड़क उठी। ये स्कूल वाले पढ़ाते कम है, चोंचले ज्यादा करते हैं। जब देखो तब कभी म्यूज़ियम तो कभी चिड़ियाघर का टूर प्रोग्राम। और अब तो हद ही हो गयी, अब तो बच्चो को घुमाने के लिए अनाथालय ले जा रहे हैं। कहते है इससे बच्चो में समाज के प्रति नजरिया बदलेगा और उनमें जिम्मेदारी की भावना आयेगी। पूजा ने माँ को भुनभुनाते देखा तो चुप हो गयी। वो जानती थी कि माँ को उसके स्कूल के बाहर के प्रोग्राम में जाना पसंद नहीं है। वह तो बड़ी मुश्किल से पिता जी के कहने पर उसे इस टूर प्रोग्राम के लिए अनुमति मिली थी। जब वह स्कूल पहुंची तो बच्चो में उत्साह का माहौल था। इसके उलट शिक्षकों में कोई गंभीर मंत्रणा चल रही थी। असल मे हुआ यह था कि अनाथालय में कुछ बच्चे बीमार पड़ गये थे और वहाँ के ब्यवस्थापक महोदय ने यह सुझाव दिया था कि अगर वे चाहे तो अनाथालय के बदले उनकी संस्था की देख रेख में चलने वाले वृद्धा- आश्रम का भ्रमण कराया जा सकता है। शिक्षकों ने काफी विचार विमर्श के बाद ये निर्णय लिया कि टूर प्रोग्राम को कैंसिल करने के बजाय बृद्धा -आश्रम का भ्रमण उचित रहेगा। दसवीं के कुल तीस बच्चे बस में सवार हुए। सबो ने मास्क लगा रखा था । उनके साथ क्लास टीचर और प्रिंसिपल मैम भी थी। बच्चो के हाँथो में फूल के गुलदस्ते और मिठाई के डब्बे भी थे। बृद्धाश्रम की दूरी करीब चालीस किलोमीटर थी । एक घंटे में बस आराम से पहुँच गई। सब बच्चो ने लाइन लगा कर प्रवेश किया। सभी बृद्धजन भी इन बच्चो को देखकर खुश थे। वे भी मास्क में थे तथा लाइन लगा कर खड़े थे। ब्यवस्थापक महोदय बता रहे थे कि यहाँ कुल सताइस बृद्ध है जिनमे उन्नीस पुरुष तथा आठ महिलायें हैं। जिनमे कुछ लोग तो ऐसे हैं जिनका इस दुनिया मे कोई ठौर ठिकाना नहीं है, पर कुछ वैसे लोग भी हैं जिनके बेटे बहु इन्हें साथ रखना नही चाहते है और वे इन्हें यहाँ छोड़ गये हैं। वे हर महीने कुछ पैसे भेजते हैं बाकी कुछ धर्मात्मा लोग चंदा देते हैं जिससे यह संस्था चलता है। बच्चों में उत्साह था। वे बड़े उत्साह से अपने साथ लाये गुलदस्ते तथा मिठाई सामने पड़ने वाले बृद्ध को दे रहे थे। पूजा के सामने एक बृद्धा खड़ी थी जिन्होने हरे रंग की साड़ी पहन रखी थी। वह आगे बढ़ी तभी सामने से आती नेहा उससे टकरा गयी और गुलदस्ता उसके हाँथ से छूट कर गिर पड़ा। उसने झुक कर गुलदास्त उठाया और आगे बढ़ी पर वह बृद्धा वहाँ नही थी। कहाँ चली गयीं ? अभी यही तो खड़ी थी। उसने नजरें इधर उधर घुमाई।मास्क के कारण पहचानना मुश्किल था, हाँ.. हरी साड़ी उसे याद था। जब वो हरी साड़ी वाली बृद्धा नही मिली तो उसने अपने हाँथ का गुलदस्ता एक दूसरे बृद्ध को दे दिया। बच्चो ने वहाँ खूब मस्ती की, गाना गाकर, कविता सुनाकर और डांस कर सभी का मनोरंजन किया। करीब दो घंटे वहाँ रहने के बाद वापसी का समय हुआ तो बच्चे और वहाँ के सभी बृद्धजन उदास हो गए। सभी बच्चे लाइन लगा कर उस आश्रम से निकल रहे थे लेकिन पूजा की नजरें किसी को ढूंढ रही थी। उसने आश्रम से निकलने के पहले अंतिम बार अपनी नजरें घुमाई। बहुत दूर कोने में खड़ी वह हरी साड़ी वाली बृद्ध उसी को देख रही थी। जैसे ही नजरे मिली उस बृद्धा ने नजरें घुमा ली और दूसरी तरफ देखने लगी। पूजा दबे पांव उसकी तरफ बढ़ी और धीरे धीरे उसके पास पहुँच गई। बृद्धा का पीठ पूजा की तरफ था। पास पहुँच कर पूजा बोली...सुनिए। वह बृद्धा चौक कर पलटी । वह रो रही थी और उसका आंख और चेहरा आंसुओ से भींगा था। पूजा ने उस बृद्धा को देखा तो चीत्कार कर रो पड़ी। दादी... तुम ? उसकी जुबान को मानो लकवा मार गया हो। वह दादी से चिपक कर बस रोये जा रही थी। बाहर निकलते बच्चे फिर अंदर आकर अगल बगल खड़े हो गए थे। कुछ देर बाद पूजा बोली, दादी आप यहाँ ? आप तो अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ गई थीं ? सच बताती तो तुम्हारा दिल टूट जाता। वैसे समय के साथ रिश्ते नाते की परिभाषा भी बदल गई है। माँ बाप तो अब अपने बच्चों के रिश्ते नातो की परिभाषा से बाहर हो गए हैं। अब तो माँ बाप के लिए रिश्तेदारी का मतलब बृद्धाश्रम ही होता है। मेरी बिटिया तू अभी छोटी है, नही समझेगी इन बातों को ,कहते हुए दादी ने पूजा को फिर से गले लगा लिया। दोनों के आंखों से अभी भी आँसू बह रहे थे। किशोरी रमण। ( लघु कथा "रिश्तो की नई परिभाषा" दोस्त मोहन मधुर के भेजे गए छोटे से व्हाट्सअप मैसेज से प्रेरित ) If you enjoyed this post, please like , follow, share and comment.
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bahut hi sundar ....
मार्मिक कहानी।
आज के बनते बिगड़ते रिश्तो की कहानी।