मैँ मुख्य सड़क पर बस से उतर कर गांव जाने के लिए खेतों के बीच से गुजरने वाली पगडंडियों वाला रास्ता चुना। बार बार पैर पगडंडि से फिसल जा रहे थे पर खेतो में खड़ी फसलें ,मंद मंद बहती हवायें और खेतों में काम करते लोग,सबकुछ मन को बिभोर कर रहा था।
मेरा भी तो बचपन इसी गांव में ,यहाँ के खेतों, बगीचों का चक्कर लगाते हुए, नदी और पोखर में नहाते हुए बिता है।दोस्तो के साथ कभी कबड्डी तो कभी गिल्ली डंडा खेलना , कभी खेतों से खीरा -ककरी चुराना तो कभी हरे चने उखाड़ना मुझे अब भी याद है।
मैं नदी के ऊंचे अलंग से उतर कर जब जोगी खंधे में पहुंचा तो वहाँ का नज़ारा देख कर आश्चर्य चकित रह गया। मेरे दोस्त सुरेश का एक बीघे का बड़ा खेत जो पहले परती और उजाड़ रहता था, वह शब्जी की फसलों से लहलहा रहा था। कोने में एक ट्यूबवेल लगा था जिसके पानी से मेरा दोस्त सुरेश अपना हाँथ मुँह धो रहा था। मुझे देखते ही खुशी से चहकते हुए बोला , यार- आज कैसे गाँव का रास्ता भूल गए। बहुत दिनों के बाद तुम्हारे दर्शन हो रहे है।
हाँ यार, मैं बोला, जब तक माँ-पिता जी जिंदा थे तब तक तो साल में एकाध बार खासकर छठ पर्व में अवश्य ही गाँव का चक्कर लगता था। अब तो बच्चों को कोई मतलब है नही गाँव से औऱ अब मुझे भी छुट्टी कम मिलती है अतः बहुत दिनों के बाद गाँव आ रहा हूँ। हाँ, तुम बताओ क्या हाल चाल है ? तुमने तो इस खेत का काया कल्प ही कर दिया है।
इस पर वह मुस्कुराते हुए बोला ,यार ये तुम्हारी भौजी यानी मेरी पत्नी लाजो का कमाल है। उसने अपने पढ़े लिखे होने को सार्थक किया है।अपनी मेहनत और नई सोँच से पूरे गाँव मे बदलाव ला दिया है। कल तक जो लोग उसपर गाँव के रीति रिवाजों को बिगाड़ने और पति को अपने वश में करने का आरोप लगाते थे वही आज उसका गुणगान करते नही थकते।
मैं पुरानी यादों में खो गया। मैं और सुरेश बचपन के लगोंटिया यार थे। पाँचवी तक हम दोनों ने गाँव के स्कूल में साथ पढ़ाई की थी। चूंकि मेरे पिताजी शहर में नौकरी करते थे अतः पांचवी के बाद आगे की पढ़ाई के लिए मुझे अपने साथ शहर लेते गये और वहाँ मेरा नाम छठवीं कक्षा में लिखवा दिया। सुरेश के पिता छोटे जोत वाले किसान थे अतः पास के गांव के हाई स्कूल में उसने अपना नाम लिखवाया। मैट्रिक में फेल होने के बाद उसकी पढ़ाई छूट गई और वह खेती-बारी में पिता जी का हाँथ बटाने लगा।
जैसा कि गाँव में अक्सर होता है ,पढ़ाई बन्द होने के बाद उसकी माँ के जिद पर उसकी शादी भी कर दी गई। चूँकि उसकी पत्नी आठवीं में पढ़ रही थी अतः ये निर्णय हुआ कि गवना उसके मैट्रिक पास करने के बाद होगा।
इधर समय ने करवट बदला। लगातार तीन सालों तक सूखा पड़ा। पटवन का कोई साधन नही था अतः किसानों की हालत खराब हो गए तथा खाने के भी लाले पड़ गए। इसी बीच सुरेश की दो बहनों की शादी भी हुई ।हर शादी में दहेज और खर्चे के लिए खेत बेचने पड़े या जमीन साहूकार के यहाँ गिरवी रखनी पड़ी। अब उसके पास आठ बीघे के बदले पाँच बीघे जमीन ही बचे थे खेती के लिए।
तीन साल बाद जब सुरेश के पिता जी ने अपने समधी से बेटे के गौने के लिए दिन रखने का आग्रह किया तो उन्होंने साफ मना कर दिया। समधी ने तंज कसते हुए कहा कि आपके पास मेरी बेटी जायगी तो खायेगी क्या ? आपका सारा खेत तो बंधक हैं। बैसे भी आपका बेटा मैट्रिक फेल है औऱ मेरी बेटी मैट्रिक पास। भला दोनों की जोड़ी कैसे बनेगी। गाँव मे पंचायत हुई पर मास्टर साहब (समधी) नही माने और उन्होंने अपनी बेटी को बिदा नही किया।
इस बात का गहरा सदमा सुरेश के पिता जी को लगा और वे बीमार रहने लगे। माँ तो पहले ही स्वर्ग सिधार गई थी अब पिता जी ने भी खाट पकड़ लिया। गाँव के ग्रामीण डॉक्टरों से इलाज कराया गया। झाड़ फूंक भी हुआ पर उनकी तबियत और खराब होती चली गई। शहर के डॉक्टर से इलाज कराने के लिए पैसों की जरूरत थी जो उसके पास नही था।
अंत मे थक हार कर सुरेश ने कुछ जमीन गिरवी रख कर कर्ज लेने का निश्चय किया ताकि पिताजी को शहर के अस्पताल में भर्ती करा सके। पर उसके पिता जी नही माने। उन्होंने कहा ,मेरी चिन्ता छोड़ो। मैंने तो अपनी जिन्दगी जी ली है और सभी को एक दिन तो इस दुनियां से जाना ही पड़ता है। अब तुम अपनी चिंता करो। खेत गिरवी रखोगे या बेचोगे तो खाओगे क्या ?
और जिसकी आंशका थी वही हुआ। पिता जी गुजर गए। वह बिलख पड़ा पर सांत्वना देने वाला घर मे कोई नहीं था। गोतिया समाज और पड़ोसियो ने उसे संभाला।दाह संस्कार और क्रिया करम का कर्म कांड शुरू हुआ। उसकी बहने और अन्य रिश्तेदार सब आ गये पर उसके ससुराल से कोई नही आया। बहनों और रिश्तेदारों ने थोड़ी मदद की जिससे दाह संस्कार तो हो गया पर अब ब्रह्मभोज और दान पुण्य के खर्चो के लिए तो खेत बेचना ही पड़ेगा । उसे समझ नही आ रहा था कि वह क्या करे।
आज दुधमुंही था । शाम के समय होने वाले कर्म कांड को कर वह घर लौटा।अंधेरा हो गया था। घर मे वहाँ पास पड़ोस की औरतें भी थी। तभी उसकी बहन उसके पास आई और बोली , भौजी आयी है।
सुरेश गुस्से से चिल्ला उठा। अब क्यो आई है?
उसकी बहन ने उसे शांत कराते हुए कहा " भैया इसमें भौजी का कोई दोष नही हैं। वह तो पहले ही आना चाहती थी पर तुम्हारे ससुर राजी नही हुए। अंत मे वह जबरदस्ती करके अपने किसी गांव वाले को लेकर आई है। सुनकर उसका गुस्सा ठंडा हो गया।
जब पड़ोस की औरतें चली गई तो उसकी पत्नी उसके पास आयी और उसके पैर छुई। दोनों चुप थे पर दोनों के आंखों से आँसू निकल रहे थे। कुछ देर बाद उसकी पत्नी बोली - मुझे माफ़ कर दो। मुझे देर से सद्बुद्धि आयी। जो आज मैने पिता के आदेशों की अवज्ञा करते हुए कदम उठाया वह मुझे पहले ही उठाना चाहिए था। फिर उसने उसके गोद मे गहनों से भरी पोटली रखते हुए कहा। इसे संभालो और इसे बेच कर काम चलाओ। बाद में भगवान ने चाहा तो फिर बन जायेंगे पर अभी तो इससे अपनी इज्जत बच जाएगी।
पूरे गाँव मे उसकी पत्नी के समझदारी और बहादुरी के चर्चे होने लगे। उसने अपने पति से कहा कि हम लोग बहुत सादे ढंग से सारे बिधि विधान तथा मृत्यु भोज करेंगे जिससे कि कम पैसा खर्च हो। सुरेश और गाँव वालों ने इसका समर्थन किया। उसके गहनों के पैसों से सब काम अच्छे से निबट गया तथा जो कुछ थोड़े पैसे बचे थे उसे संभाल कर रखा गया।
कुछ दिनों के बाद उसने अपने पति से कहा कि मैं चाहती हूँ कि जो कुछ पैसे बचे है उनसे एक सिलाई मशीन और एक गाय खरीद ली जाए। मुझे सिलाई आती हैं ,अतः इससे मेरा समय भी कटेगा तथा कुछ आमदनी भी होगी। खेती बारी में तो मौसम में काम रहता है और फिर बैठा बैठी । अगर एक दो गाय रखते है तो खेतो का घास औऱ चारा का उपयोग हो जाएगा और कुछ नगद आमदनी भी हो जायेगी।
सिलाई मशीन आई तो उसके घर मे पास पड़ोस की लड़कियो की भीड़ रहने लगी जिसे लाजो मुफ्त में सिलाई सिखाती थी। कपडें सिलने के पैसे भी कुछ मिलने लगे। पहले एक गाय आया और फिर दूसरा और अभी उसके पास तीन जर्सी गाय है। शुरू में सुरेश साइकिल के कैरियर पर दूध का केन लेकर पास के शहर में दूध बेचने जाता था पर थोड़े ही दिनों में उसके आस पड़ोस में कई लोग गाय पालने लगे और कोआपरेटिव सोसाइटी ने यहाँ मिल्क कलेक्शन सेंटर खोल दिया ।
फिर लाजो ने अपने पति को समझाया कि धान गेहूँ के अलावा नगदी फसल जैसे शब्जी और फल की खेती कीजिये। लोगो ने सामूहिक प्रयासों से मिलकर बोरिंग गड़वाया और पानी की व्यवस्था होने पर नगदी फसल उगाना शुरू किया जिससे सुरेश और अन्य किसानों की आमदनी बढ़ने लगी।
मैं उसकी बातों में कही खो गया था कि सुरेश की आवाज़ ने मेरी तंद्रा भंग की।
देखो तुम्हारी भौजी आ रही है मेरे लिए खाना लेकर।
पास आने पर मैंने हाँथ जोड़कर कहा "" भौजी प्रणाम"
खुश रहिये देवर जी ...बहुत दिनों बाद भौजी की याद आई और वो भी अकेले आये। देवरानी को साथ नही लाये? मैं कुछ बोलता तभी वो बोल पड़ी- चलो आप भी मुँह हाँथ धो लो ,आज मैंने मक्के की रोटी बनाई हैं और आलू बैगन का चोखा ।
लाजो भौजी के स्नेह और अधिकार भरी बातो से मैं प्रभावित था। मैंने भी सुरेश के साथ ही भौजी के हाँथ का बना खाना खाया । खाना खाकर लगा कि मन और आत्मा दोनों तृप्त हो गया हैं।
किशोरी रमण।
Nice story.....
"लाजो भौजी"
ग्रामीण परिवेश की सच्चाई लिए एक मार्मिक कथा है।जिसमें एक आम आदमी के ग्रामीण जीवन की ब्यथा,मजबूरी और परिस्थितियों से लड़कर अपने को संभालने का संदेश ही नहीं बल्कि नारी चरित्र की उज्वलता को समर्पण, सहयोग और परिवार एवं समाज के प्रति कर्त्तव्यों के निर्वहन द्वारा उजागर किया गया है।
कथा बहुत सुंदर गागर में सागर की तरह है।
पढ़ कर मुंशी प्रेमचंद याद आ गये।
:-- मोहन "मधुर"
मार्मिक और प्रेरक कहानी ।