जिन्हे घुघरूओं की खनक से चिढ़ थी
वे ही आज कोठे पे जाने लगे है
जो सभ्यता, संस्कृति की देते थे दुहाई
अब खुद ही रास लीला रचाने लगे है
जो क्रांतिका मतलब समझते थे माफी
अब खुद को क्रांतिकारी बताने लगे है
जिन्होंने धर्म को बनाया सत्ता की सीढी
अब दूसरेधर्मो पे ऊंगली उठाने लगे है
नही था जिन्हे लोकतंत्र पर भरोसा
वे संविधान की कसम खाने लगे है
जो देते थे हर दम बापू को गाली
अब वे गांधी जयंती मनाने लगे हैं
भूल गए वे सबके विकास का नारा
अब चंद लोग ही उन्हें भाने लगे है
जबसे फूटा है उनके झूठका गुब्बारा
वे जुमलो के सरदार नजर आनेलगे है
जो मिटाने चले थे किसी का इतिहास
अब खुद हासिए पर नजर आने लगे है
हां, रंग बदलने में वे है बड़े ही माहीर
अब उनसे गिरगिट भी शरमाने लगे है
किशोरी रमण
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सुंदर रचना।