जब मैंने पहली बार फ़िल्म देखी जब हम लोग छोटे थे तो फ़िल्म देखना बुरी बात समझी जाती थी। जैसे जुआ और ताश खेलना, शराब पीना बुरी बात थी वैसे ही फ़िल्म देखना भी बुरी बात थी। जो बच्चे चोरी छिपे फ़िल्म देखते थे उनके बारे में मान लिया जाता था कि ये तो बिगड़ गया है औऱ आवारा हो गया है। यह उस समय की बात है जब मै सातवीं क्लास में, श्री शंकर उच्च विद्यालय सासाराम में पढ़ता था। हमारे क्लास का लड़का प्रताप कोई न कोई जुगाड़ लगा कर हर नई लगनेवाली फ़िल्म का पहला दिन पहला शो देखता था। फिर दूसरे दिन क्लास में हम सब पर ऐसा रुआब गाँठता था कि पूछो मत। टिफिन टाइम में हम सभी लड़के उसको घेर कर बैठ जाते और उससे फ़िल्म की कहानी सुनाने की मिन्नतें करते। पहले तो वह खूब भाव देता, ना - नुकुर करता पर हम लोगो के मस्का लगाने पर मान जाता। हमलोग उसको चारो तरफ से घेर कर बैठ जाते और वह कहानी शुरू करता। जब मार पीट के दृश्य का वर्णन करना होता तो मुँह से ढिशुंग ढिशुंग बोलता और कभी कभी उसका हाँथ भी चल जाता। एक दो बार चोट खाने के बाद हमलोग उससे थोड़ी दूरी बनाकर बैठते थे। उन दिनों मनोरंजन के सीमित साधन थे। उछल कूद करना, छोटे से रबर की गेंद से उसके टूकड़े टुकड़े होने तक उससे खेलना या अखवार पढ़ना। उस समय हमारे बड़े लोग अक्सर ये कहावत सुनाया करते थे कि " पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नबाब, खेलोगे कूदोगे तो होंगे खराब"। शहर में दो सिनेमा हॉल था, आनंदी टॉकीज एवम साहू टॉकीज। साहू तो शहर से लगभग बाहर ही था लेकिन आनंदी टॉकीज शहर के बीचो बीच पार्क के पास था।पार्क आते जाते बड़ी हसरत से सिनेमा हॉल को दूर से निहारते थे क्योंकि घर वालो की सख्त मनाही थी हॉल के नजदीक जाने की। जब नया पिक्चर लगता तो लाउडस्पीकर लगे विक्टोरिया टाइप घोड़ा गाड़ी से शहर में उसका प्रचार होता और कागज के पम्पलेट बाटे जाते। हमलोग पम्पलेट पाने के लिए मिलो उस घोड़ा गाड़ी के पीछे भागते और पम्पलेट मिल जाने पर इतने खुश होते मानो हमने कोई ट्रॉफी जीती हो। अपने साथी प्रताप की बाते सुन कर मेरे मन मे फ़िल्म देखने की इच्छा बलवती होती गयी। पर घर मे बिना बताये अगर चुपके से जाता हूँ तो एक तो टिकट के पांच आने पैसे का सवाल था दूसरा अगर घर वालों को पता चल जाता तो अपनी धुनाई का डर था। अंत मे मैंने माँ से कहा तो उन्होंने साफ मना कर दिया, बोली - तुम्हारे पिताजी कभी आज्ञा नही देगें। फालतू और लफूआ लोगो का काम है फ़िल्म देखना। अभी केवल पढ़ाई पर ध्यान लगाओ। बड़ा होने पर कौन तुम्हें रोकेगा फ़िल्म देखने से ? कुछ दिनों के बाद फिर माँ को मनाने का प्रयास किया। माँ तो माँ होती है अतः मान गई बस उनकी शर्त थी कि अपने छोटे भइओ को बताऊगा नही और फ़िल्म कोई धार्मिक होना चाहिए। कुछ दिन पहले मामा जी आये थे और जाते समय हम सभी भाइयों को एक एक चवन्नी दे गए थे। अतः टिकट के पांच आने तो थे मेरे पास बस अब इंताजर था तो किसी धार्मिक पिक्चर के लगने का। कुछ ही दिनों के बाद एक धार्मिक पिक्चर लगा, नाम था जय बजरंगबली। दोस्तो से सुन चुका था की पहले टिकट खिड़की से पैसे देकर टिकट खरीदना होता है और वही टिकट दिखाने पर अंदर जाने दिया जाता है। जिस दिन मुझे फ़िल्म देखने जाना था उसदिन सुबह से ही मैं रोमांचित था। सोच रहा था कि कल मैं भी क्लास में अपने साथियों के बीच रौब जमाऊंगा और फ़िल्म के किस्से सबको सुनाऊँगा। शाम को करीब तीन बजे आनंदी सिनेमा हॉल पहुँचा।टिकट कटाने के लिए मैं भी लाइन में लग गया। पांच आना देकर थर्ड क्लास का टिकट लिया। बरामदे के सबसे अंतिम प्रवेश द्वार जिसपर थर्ड क्लास का बोर्ड लगा था पहुंचा। गेटकीपर ने टिकट का आधा हिस्सा फाड़ कर रख लिया और मुझे हॉल के अंदर जाने दिया। भीतर काफी लोग बैठे थे। चुकि मेरा थर्ड क्लास था अतः बैठने के लिए बेंच लगा था, जहाँ मर्जी बैठ जाओ। मैं एक बेंच पर बैठा ही था कि तभी हॉल की लाइटें बुझ गई और पर्दे पर न्यूज़ चालू हो गया। न साफ आवाज न साफ फ़ोटो, लगता था एक ही न्यूज़ बहुत दिनों से चलाया जा रहा है। कुछ ही देर में पिक्चर शुरू हुआ। अब आवाज और पिक्चर दोनों साफ था। पर्दे पर का दृश्य देखकर मैं रोमांचित हो रहा था। लोग बीच बीच मे ताली बजा रहे थे और चिल्ला भी रहे थे। मुझे भी मजा आ रहा था। समय कैसे कटा पता ही नही चला और तभी सिनेमा हॉल की लाईटे जल गई ।चाय गरम और करारे पापड़ ले लो कहते हुए कई लोग भीतर घुस गए। लोग उठकर हॉल से बाहर जाने लगे । मैं भी उठा और लोगों के पीछे पीछे बाहर आ गया। फिर इस डर से कि कोई जानने वाले या कोई मास्टर जी मुझे हॉल से निकलते हुए देख न ले मैं वहाँ से भाग लिया और घर आकर ही रुका। माँ ने मुझे देखा तो आश्चर्य से पूछा- तुम यहाँ ? पिक्चर नही देखा ? पिक्चर देख कर ही तो आ रहा हूँ, मैंने कहा। इस पर माँ ने कहा , तुम्हे तो गये करीब दो घंटे हुए है। पिक्चर तो ढाई से तीन घंटे का होता है, फिर इतनी जल्दी कैसे आ गये ? मुझे कुछ समझ नही आया। मैंने कहा - हॉल की लाईटे जल गयी थी और सब लोग बाहर निकल रहे थे तो मैं भी निकल कर घर आ गया। अरे बुद्धू , माँ ने हँसते हुए कहा ,पिक्चर के बीच मे इंटरवल होता है। लोग जिन्हें चाय पानी की तलब होती है या बाथरुम जाना होता है उनके लिए पांच मिनट के लिए ब्रेक होता है। इसके बाद फिर पिक्चर शुरू होता है। तुमने तो पूरी पिक्चर देखी ही नही बल्कि आधी पिक्चर के बाद इन्टरवल में ही बाहर निकल गये। सुनकर मैं दुखी हो गया। कहाँ मैं सोच रहा था कि दोस्तो को बताऊंगा औऱ अपना रौब झरूँगा पर यहाँ तो मैं ही बुद्धू बन गया था। तो ये रहा मेरा संस्मरण "जब मैंने पहली बार पिक्चर देखी"। हाँ इस घटना का जिक्र पहली बार आपसबों से ही कर रहा हूँ। किशोरी रमण
BE HAPPY….BE ACTIVE….BE FOCUSED….BE ALIVE…
If you enjoyed this post, please like, follow, share and comments
Please follow the blog on social media …link are on contact us page..
www.merirachnaye.com
वाह, बचपन की यादगार घटना की सुंदर प्रस्तुति।
संस्मरण बालपन की यादों को ताजा कर गई। माध्यमिक विद्यालय में पहले के समय में एक-दो बच्चे उम्रमें ज्यादा और कुछ शादीशुदा भी होते थे।अपने नजीर आलम की तरह।😊😊 परन्तु वो आलम तो सीधा था। हमारे विद्यालय के ऐसे लड़के बड़े बक बक करते थे। जैसे क्लास से शिक्षक गये धौंस जमाना शुरू। संस्मरण अच्छा लगा। इंटरवल में घर पहुँचने की बात तो मजा दे गया।
:-- मोहन"मधुर"