एक बार मेरे साथ एक विचित्र घटना घटी थी जिसे याद कर आज भी मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। एक डॉक्टर ने मुझ पर पिस्टल तान दी थी। चंद मीटर का फासला था। डॉक्टर की उंगली पिस्टल के ट्रिगर पर थी और उसकी नली मेरे सीने की तरफ। हम दोनो बुत की तरह एक दूसरे के सामने थे।
यह स्थिति सिर्फ बीस बाइस सेकेंड ही रही होगी पर इस दरम्यान मैं जिस भयानक डर और मानसिक यंत्रणा से गुजरा उसे शब्दों में बयान नही किया जा सकता। मेरे मुंह से कोई आवाज ही नहीं निकल पा रही थी। मुझे लग रहा था कि धाय की आवाज होगी और मेरा काम तमाम हो जायेगा। पर मैं शायद मरता नहीं क्योंकि ये घटना या दुर्घटना अगर होती भी तो एक अस्पताल में, एक डॉक्टर के हाथो होती जहां मुझे आपातकालीन चिकत्सा सुविधा मिल जाती। अब मैं विस्तार से उस घटना का वर्णन कर रहा हूं।
ये घटना उन दिनों की है जब मैं केनरा बैंक जंदाहा शाखा में वरिष्ठ प्रबंधक के रूप में कार्यरत था। चुकी जंदाहा और उसके आसपास कोई अन्य राष्ट्रीयकृत बैंक की शाखा नही थी इसलिए शाखा में काफी भीड़ रहती थी और शाखा का व्यवसाय भी काफी अच्छा था। यूं तो हमने काफी डॉक्टरों को लोन दिया था पर उनमे से दो डॉक्टर वहां काफी मशहूर थे जिन्हे हमने अस्पताल बनवाने, चिकत्सा उपकरण, एवम गाड़ी खरीदने के लिए लोन दिया था। दोनो का लोन खाता अच्छा चलता था और एडवांस रिकवरी आती थी। इसके अलावा उनके डिपॉजिट और नित्य निधि खाता भी चलता था जिसमे काफी पैसे रहते थे। अतः हम लोग उन्हे आग्रह कर के लोन देते थे क्यों की वसूली की चिंता नहीं रहती थी। जब भी इंस्टालमेंट ड्यू होता हम उन्हे फोन कर देते और वो अपने स्टाफ या फिर हमारे एनएनडी एजेंट महेंद्र जी के हाथो पैसा भेज देते।
सब ठीक चल रहा था कि इसी बीच उनके साथ एक हादसा हो गया। डॉक्टर राजेंद्र ( बदला हुआ नाम ) का अपहरण हो गया। काफी हंगामा मचा। जंदाहा ही नही बल्कि बिहार के सभी डॉक्टर आई एम ए के नेतृत्व में उनके लिए सड़कों पर उतर आए। उस समय के सरकार और प्रशासन के लिए उन्हें सकुशल छुड़ाना एक बड़ी चुनौती बन गई थी। उनको सकुशल छुड़ाने के लिए एक टास्क फोर्स का गठन किया गया था। रोज नए नए अफ़वाह उड़ रहे थे। अख़बार तथा लोकल न्यूज़ और टी वी चैनल नमक मिर्च लगा कर खबरों को प्रसारित कर रहे थे। हम बैंक वाले भी उनके सकुशल वापसी के लिए भगवान से प्रार्थना कर रहे थे क्योंकि हमलोगो ने उन्हें काफी ऋण दे रखा था।
करीब तीस बत्तीस दिनों के बाद वे अपहरणकर्ताओं के चंगुल से छूट कर वापस आए। पुलिस उन्हे सकुशल छुड़ाने का दावा कर अपनी पीठ थपथपा रही थी पर परदे के पीछे की खबर थी कि अपहरणकर्ताओं ने उनसे मोटी राशि वसूल की है। इस दरम्यान हमारी शाखा से भी उनके रिश्तेदारों के खाते से काफी पैसे निकाले गए थे।
अब औरों की तरह हम बैंक वालों ने भी चैन की सांस ली। कुछ दिनों तक वे पुलिस के कड़ी सुरक्षा के बीच रहे। इसके अलावा उन्होंने अपनी निजी सुरक्षा का इंतजाम भी किया। वे किसी से मिलते नही थे। अस्पताल के ऊपरी मंजिल पर उनके रहने की व्यवस्था की गई। इस बीच करीब तीन महीने गुजर गए और उनके सारे लोन खाते ओवरड्यू होने लगे। चुकी वे मिलते नही थे अतः उनसे फोन पर या फिर उनके स्टाफ के माध्यम से ही बात हो पाती थी। फोन पर जब बात होती तो वे आश्वासन देते कि अगले सप्ताह में आपके सारे ओवरड्यू क्लियर हो जायेगें पर वैसा होता नही था। हां, उनके डिपॉजिट एवम एन एन डी खातों से पैसे लगातार निकल रहे थे। उनके बारे में ये भी सुनने में आया कि वे काफी चिड़चिड़े हो गए है और कभी कभी झक्की जैसा व्यवहार करने लगते हैं। हम लोग यही सोचते कि इतने दिनो तक अपहरकर्ताओ के चंगुल में रहने और मानसिक कष्ट झेलने के कारण ही उनमें ये सब बदलाव आए है जो समय बीतने पर खुद व खुद ठीक हो जायेगें।
अब हॉस्पिटल भी ठीक ढंग से चलने लगा था फिर भी ऋण खातों में पैसे जमा नही हो रहे थे। मैने फोन किया तो उन्होंने बताया कि मैनेजर साहब, पैसे तो थे पर आपसे भला क्या छिपाना। मैने एक राइफल खरीदा है, सारे पैसे उधर ही लग गए। पर आप चिंता न करें, अगले सप्ताह मैं सारे ओवरड्यू क्लियर कर दूंगा।
एक सप्ताह और गुजर गए। हमारे ऑफिसर ने ये कह कर मेरी चिंता बढ़ा दी कि अब अगर खाते में पैसे जमा नही हुए तो उनके सारे खाते एनपीए हो जायेगे।
अब हमने उनसे मिलने का फैसला किया और बहुत मुस्किल से उनसे शाम को मिलने का समय लिया। शाम को हॉस्पिटल के उपर बने उनके आवास में जहां वे अकेले ही रहते थे मिलने का प्रोग्राम बना। मेरे साथ एन एन डी एजेंट महेंद्र जी भी थे। चुकी उनके सारे स्टाफ परिचित ही थे अतः उन्होंने तुरंत डॉक्टर साहब को फोन किया और उनके पास आने की अनुमति ली। फिर उनका स्टाफ हमलोगों को लेकर आगे बढ़ा। सुरक्षा के ख्याल से उनके चैंबर से हो कर पहले ऑपरेशन थिएटर और तब सीढियों से उनके शयन कक्ष तक का रास्ता तय किया।
जब मैं महेंद्र जी के साथ उनके कक्ष में पहुंचा तो वे अपने बेड पर बैठे हुए थे। सामने दो कुर्सियां पड़ी थी जिसपर हम दोनो बैठ गए। सामने बेड पर एक राइफल रखा हुआ था जिसे दिखाते हुए उन्होंने कहा, मैनेजर साहब ये राइफल मैने खरीदी है, इसमें दो लाख लग गए। अब अपनी सुरक्षा पर तो ध्यान देना ही होगा। इसी कारण आपको पैसे नहीं दे पाए। पर आप चिंता न करे, जल्द ही सारे ओवरड्यू क्लियर हो जायेगें।
मैं चिढ़ सा गया और तल्ख आवाज में बोला, डॉक्टर साहब, ये तो पिछले महीने की बात है पर इस महीने क्यों पैसे जमा नही हुए।
मेरी बातों को सुनकर वे बोले हां, उसके बाद भी पैसे आए थे।
मैने पूछा, वे पैसे कहां लगा दिया ?
वे थोड़े गंभीर हो गए। पूछा, जानना चाहते है कि मैंने वो पैसे कहां लगाए ?
मैने हां में अपना सर हिलाया।
बस पलक झपकते ही उनका हाथ तकिए की तरफ गया और बिजली की तेजी के साथ उनका हाथ मेरी तरफ उठा। उनके हाथ में पिस्टल था और उसकी नली मेरी तरफ थी। चंद फीट का फासला था और उनकी उंगली पिस्टल के ट्रिगर पर थी। मेरी तो घिग्गी बंध गई थी। लगा, मेरा अंत समय आ गया है।
उपरोक्त स्थिति करीब बीस बाईस सेकेंड की रही होगी जब हम दोनो बुत की तरह स्थिर थे। महेंद्र जी भी भौचक से थे।
तभी उनके चेहरे पर मुस्कान आई। उनकी आवाज सुनकर मेरी तंद्रा भंग हुई। वे कह रहे थे, मैनेजर साहब, इसी पिस्टल को खरीदने के चक्कर में मैं पिछले सप्ताह भी लोन खाते में पैसे नही जमा करा पाया। मैने सोचा कि जब तक राइफल निकालुगा तब तक तो दुश्मन मुझे ठोक कर चला जाएगा। बस, मैने पिस्टल खरीदने का निर्णय कर लिया। जैसे ही दुश्मन पास आएगा, मैं उसे पहले ही शूट कर दूंगा, इतना कह कर फिर मेरी ओर पिस्टल तान दी। इस बार उनके चेहरे पर मुस्कुराहट थी अतः मैं डरा नहीं। फिर उन्होंने पिस्टल मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा, देखिए ये कितना छोटा और हल्का है।
मैं कुछ बोला नहीं। अब मुझे वहां का एक एक पल भारी लग रहा था और वहां से निकलना चाह रहा था। वहां से विदा होते समय बस यही कह पाया, डॉक्टर साहब, जरा हमारा भी ध्यान रखिएगा।
वहां से वापस आते समय मैं बस यही सोच रहा था कि कुछ समय पहले जो घटना घटित हुई वह महज इत्तेफाक था या मुझे डराने की कोई साजिश।
खैर, एक सप्ताह के अंदर ही पैसे आ गए और उनके सारे लोन खाते रेगुलर हो गए।
किशोरी रमण।
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Bahut hi sundar.
जी हाँ, कभी कभी ऐसी भी घटना का सामना करना पड़ता है। रोमांचित संस्मरण।
वाह भाई! ऐसी घटना जो रोमांच और डर के साथ मन को तसल्ली भी दे गई। संस्मरण अच्छा लगा।