यह उस समय की बात है जब मैं छोटा था और क्लास चार में पढ़ता था। उस समय गाँव में बहुत कम ही लोग पढ़े लिखे होते थे और औरतों में तो कोई बिरले ही पढ़ी- लिखी होती थी। अतः चाहे चिट्ठी लिखवानी हो या पढवानी हो, इसके लिए उन्हें दूसरों की चिरौरी करनी पड़ती थी। खासकर औरतें और नई नवेली बहूओं को कुछ ज्यादा ही परेशानी होती थी। वे हर एक के पास औऱ खासकर मर्दों के पास तो जा नहीं सकती थी। और अगर चली भी गई तो वे अपनी बातें खुलकर रखने में शरमाती थी।
इन सब हालातों में मेरी तो चाँदी थी। गाहे-बगाहे सब को मेरी जरूरत पड़ जाती थी। इसी का नतीजा था कि घर के अलावा मोहल्ले टोले में किसी के घर में कोई फल-मिठाई आए या पकवान बने मुझे जरूर खिलाया जाता था। उस समय चिट्ठी लिखना और पढ़ना दोनों मुश्किल काम होता था। अजीब अजीब तरह के शब्द और विचित्र सी लिखावट होती थी जिसे पढ़ने में काफी मुश्किलें आती थी। ज्यादातर पोस्टकार्ड या अंतर्देशीय पत्र ही भेजे जाते थे क्योंकि यह सस्ते होते थे। चिट्ठी के प्रारंभ में सारे देवी देवताओं को प्रणाम लिखकर शुरुआत करनी होती थी। फिर घर में जितने बड़े हैं उनकी तरफ से आशीर्वाद और छोटों के तरफ से प्रणाम इत्यादि लिखा जाता था। अब चुकी पोस्टकार्ड तो छोटा होता था अतः दो तिहाई भाग इन्हीं सब बातों से भर जाता था। जो मुख्य बातें होती थी और जिसके लिए पत्र लिखा जा रहा होता था उसके लिए तो जगह ही नहीं बचती थी। तब बड़ी मुश्किल से, बाकी बची बातों को संक्षेप में लिखना होता था। और अंत में "कम लिखना, ज्यादा समझना" लिख कर पत्र को समाप्त किया जाता था।
अब असली घटना पर आते हैं। करीब साढ़े चार बजे शाम का समय रहा होगा। स्कूल से घर लौटने के दौरान जब मैं पोखर के पास से गुजर रहा था तो देखा कि कैलू और उमेश पानी में जलकुंभी का नाव बनाकर उस पर खड़े हैं। उनके हाथ में एक डंडा भी था जिससे वे पतवार का काम ले रहे थे। उन्होंने मुझे देखते ही आवाज लगाई- विनोद, आ जाओ, नाव का मजा लेते हैं। मैंने कहा,जरा ठहरो। मैं अपना बस्ता( किताब) रख कर आता हूँ। मैं जल्दी से दलान पहुँचा, अपने बस्ते को चौकी पर फेंका और दौड़ते हुए वापस पोखर के पास आ गया। मैंने अपनी चप्पलें खोली और पानी में उतर गया। करीब घुटना भर पानी था। उसी में जलकुंभी का गट्ठर तैर रहा था। तभी मेरे दिमाग में आया कि अगर हम तीनों का वजन ये गट्ठर नहीं संभाल पाएगा तो ये जलकुंभी वाली नाव डूब जाएगी। तब तो पानी मे भीगना पड़ेगा। अच्छा होगा अगर मैं अपनी शार्ट को उतारकर किनारे पर रख दूँ। यही सोंच कर मैं पानी से बाहर आया। अपने शर्ट को खोला। तभी मेरी नजर शर्ट के ऊपर वाले पॉकेट पर गयी। देखा कि शर्ट के ऊपरी पॉकेट में पेन और एक पोस्टकार्ड है। स्कूल से घर आते समय रास्ते में डाकिया मिल गया था। मेरे पड़ोस में जो दीपू चाचा हैं उन्हीं के घर में डांक देने के लिए डाकिया मेरे गाँव आ रहा था। मुझे देखा तो पोस्टकार्ड मुझे ही थमा दिया।
मैंने अपना शर्ट खोला। पेन और पोस्टकार्ड को शर्ट के ऊपर वाले पॉकेट में रखने के बाद उसे पोखर किनारे उग आई करौंदे की झाड़ी पर लटका दिया। फिर पानी में उतर गया। और जैसा कि डर था, थोड़ी ही दूर तैरने के बाद वह जलकुंभी वाला नाव हम लोगों का वजन नहीं संभाल सका और पानी में डूब गया। क्योंकि पोखर में कम पानी था, हम लोग सही सलामत किनारे आ गए। जब मैं अपना शर्ट लेने के लिए झाड़ी की तरह बढ़ा तो देखा कि एक बकरी जो झाड़ी के पत्ते खा रही थी मेरे शर्ट को भी चबा रही थी। मैंने जल्दी से उस बकरी को भगाया और शर्ट वापस लेकर पहन लिया। पॉकेट में पड़ा पोस्टकार्ड थोड़ा मुड़-तुड़ गया था लेकिन सलामत था। मैं वापस घर की तरफ चल दिया।
रात के करीब आठ बज रहे थे और मैं अपने दलान में लालटेन की रोशनी में पढ़ रहा था। पास ही दादा जी बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। तभी मेरा ध्यान अपने पॉकेट पर गया जिसमें मुड़ा-तुड़ा पोस्टकार्ड रखा हुआ था। शाम को ही दीपू चाचा के घर में इसे देना था। अब क्या करूँ ?जैसा कि गाँव में होता है लोग रात को सात-आठ बजे तक सो जाते हैं। तभी मेरे दिमाग में विचार आया कि अगर मुड़ा-तुड़ा पोस्टकार्ड उन्हें हाथ में दूँगा तो जरूर डांट पड़ेगी। इससे तो अच्छा है कि अभी दरवाजे से उसे भीतर सरका दूँ। डाकिया भी तो जब दरबाजा बंद रहता है तो इसी तरह घर के भीतर सरका देता है। मैं चुपचाप दादाजी की नजर बचाकर दलान से बाहर आया और अपने गोतिया दीपू चाचा के दरवाजे से उस कार्ड को घर के भीतर सरका दिया। फिर आकर अपनी किताबें समेटी और दादाजी के पास ही सो गया।
सुबह-सुबह हम लोग शौच के लिए नदी पर जाते थे। जब वहाँ से वापस आया तो घर के पास काफी शोर-शराबा हो रहा था। दीपू चाचा के घर के अंदर से रोने की आवाज आ रही थी। दीपू चाचा के घर के बाहर ही मेरी माँ खड़ी थी। मुझे देखते ही जल्दी से बोली- विनोद, जल्दी से आना। शायद वह मेरा ही इन्तेज़ार कर रही थी। क्या हुआ ? मैंने पूछा पर माँ ने कोई जवाब नहीं दिया। बस मेरा हाथ पकड़ कर चाची के आँगन में ले गई और चाची से पूछा-कहाँ है पोस्टकार्ड ?
तभी रोते हुए चाची आई और मेरी माँ के हाथ में एक पोस्टकार्ड पकड़ा गई। मैं चौंक उठा। यह तो कल वाला वही मुड़ा-तुड़ा पोस्टकार्ड है जिसे मैंने दरवाजे से सरकाया था। तो क्या इससे कोई कांड हो गया है ?
माँ ने मुझे उस पोस्टकार्ड को देते हुए कहा- बेटा , जरा पढ़ तो तू। क्या लिखा है ?
मैंने पढ़ना शुरू किया। माँ दुर्गा के आशीर्वाद से मैं ठीक हूँ और परम पिता परमेश्वर से मनाता रहता हूँ कि आप सब ठीक से होंगे। आगे समाचार यह है कि मैंने पचास रुपये का मनीआर्डर लगा दिया है। पैसा मिलने पर इसमें से सात रुपये दूध का उधारी चुका देना। पिछले बैशाख में जो मैंने ताड़ी पिया था और पाँच रुपये उसका बकाया रह गया था उसको चुका देना। बाकी साव जी का भी हिसाब कर देना। आगे खुशखबरी ये है कि सेठ जी ने मेरी पगार दस रुपये महीना बढ़ा दिया है। आप सवा रुपया का लड्डू हनुमान जी को चढ़ाकर टोले में बांट देना।
पत्र खत्म करते ही मैंने माँ की ओर देखा। माँ ने मुझसे पूछा- और कुछ नहीं लिखा है इसमें, किसी के मरने हरने के बारे में ?
नहीं तो, भला तुम ऐसी बातें क्यों कर रही हो ? मैंने माँ पूछा।
अरे तुम देख नही रहे हो ? इस पोस्टकार्ड में किसी अपने के मरने का समाचार है यही सोंच कर तो यहाँ स्यापा मचा हुआ है, और सब रो रहे हैं।
पर बिना पत्र पढ़े ये कैसे समझ लिया कि इस पोस्टकार्ड में किसी के मरने की खबर आई है ? मैंने आश्चर्य से पूछा।
इसपर माँ ने उस पोस्टकार्ड को मेरे सामने किया। उस मुड़े-तुड़े पोस्टकार्ड का एक कोना कटा हुआ था। तब कोना कटा होने का मतलब होता था कि पोस्टकार्ड में किसी के मरने की खबर है।
ओह, तो ये बात है ? अब मुझे अपने आप पर ही गुस्सा आ रहा था और उस बकरी पर भी जो पोस्टकार्ड का कोना कुतर गई थी। तभी माँ ने अपने साड़ी के पल्लू की गाँठ खोली और सवा रुपया मुझे देते हुए कहा- बेटा, जा- जल्दी से लड्डू खरीद, पहले महावीर जी को चढ़ा और फिर यहाँ हम सबो में बाँट।
मुझे लगा कि यही मेरा प्रायश्चित है। मैंने जल्दी से माँ के हाथों से पैसा लिया और लड्डू के दुकान की तरफ दौड़ चला।
किशोरी रमण
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वाह, बहुत मज़ेदार संस्मरण। पढ़ कर मज़ा आ गया।
Bahut hi sundar...