आज जमाना बदल गया है। हम पहले से ज्यादा सभ्य और शिक्षित हो गए है। पर इसकी कीमत भी हमे चुकानी पड़ी है। आज सब कुछ रहते हुए भी हम अकेले हैं। खुशिओं को खोजना और महसूस करना हमने बन्द कर दिया है। पहले ये बात नही थी। बचपन मे होली का पर्व सबसे मजेदार और मस्ती वाला होता था। तब हम छोटी छोटी खुशिओं को पकड़ कर , उसमें हँसी-ठिठोली का रंग भर कर जीवन को रंगीन और गुलज़ार बना देते थे। आज प्रस्तुत है होली पर्व से जुड़ा बचपन का एक संस्मरण।
पहले फागुन महीना के आरम्भ होते ही छेड़छाड़, रंग- गुलाल, कीचड़-स्नान और मटरगश्ती शुरू हो जाती थी। धमाचौकड़ी में आगे तो हम बच्चे ही रहते थे पर हमारे सपोर्ट में और हमें नए-नए आईडिया देने में बड़े भी खूब साथ देते थे। इसमें जो व्यक्ति ज्यादा चिढ़ता था उसे ही लोग ज्यादा चिढ़ाना पसंद करते थे। जो रंगों से डरता था उसे तो दौड़ा दौड़ा कर और पकड़कर रंग लगाया जाता था। अगर रंग खत्म हो गया तो पानी और अंत में नाली का कीचड़। उस समय सब जायज होता था। स्कूल कॉलेज जाने वालों के शर्ट पैंट पर नींब वाली पेन से छीड़की गई रोशनाई की लकीरें गजब ढाती थी। आलू को काटकर उससे बनाए गए ठप्पे जिस पर चोर गदहा खुदा होता था और शर्ट के पीछे लगाने पर यही छप जाता था बड़ा प्रसिद्ध था।
हमारे लस्करीगंज कोठाटोली मोहल्ले में एक विधवा बूढ़ी औरत रहती थी। मंदोदरी बूढ़ी नाम से वह प्रसिद्ध थी। अभी तक इस तरह के नाम मैंने रामलीला और रामायण के प्रवचन में ही सुना था अतः मुझे या नाम कुछ अजीब सा लगता था। वह बूढ़ी थी भी बड़ी अजीब। रास्ते में आते जाते अगर गलती से भी कोई उसके घर के दरवाजे पर बने पहुँची यानी चबूतरे पर चढ़ जाए तो वह गालियों की बौछार कर देती। अब दिन में कई बार ऐसा होता कि गली में सामने से बैलगाड़ी या ताँगा आता और उससे बचने के लिए लोग उसके चबूतरे पर चढ़ जाते थे। फिर तो वह सारे खानदान को गाली देती। दुनिया भर के श्राप मंदोदरी बूढ़ी के मुहँ से निकलने लगता। फिर वह बाल्टी और झाड़ू लेकर अपने बरामदे को धोती और गंगा जल छिड़क कर पवित्र करती।
यही कारण था कि हमारे मोहल्ले के बहुत से लोग थे जिन्हें मंदोदरी बूढ़ी को चिढ़ाने में मजा आता था। पर वे पर्दे के पीछे रहकर अपना काम करते थे। अगर बकरियों का झुंड गली से गुजर रहा होता तो उसे डरा कर हाँक देते। बकरियाँ डर कर चबूतरे पर चढ़ जाती और फिर मंदोदरी बूढ़ी का प्रलाप शुरू हो जाता। सबको इंतजार रहता था फागुन महीने का। महीना शुरू होते ही मंदोदरी बूढ़ी के दरवाजे पर कभी कूड़ा कभी हड्डी कभी गोबर तो कभी कीचड़ सुबह सुबह मिलते। रात में या भोर में कोई उसके चबूतरे पर इन चीजों को बिखेर जाता। मंदोदरी बूढ़ी जब अपने दरवाजे पर इन चीजों को पाती तो फिर उसका चीखना चिल्लाना, गाली और श्राप देना शुरू हो जाता, और लोग मजे लेते।
शाम रात और कभी-कभी सुबह में मंदोदरी बूढ़ी सजग रहती पर अगल बगल वाले और बच्चों की टोली भी सावधान रहकर मौके की तलाश में लगी रहती। ज्योँ ही मंदोदरी बूढ़ी अपने दरवाजे का चक्कर लगा घर के अंदर जाती इशारा पाकर आस-पास छुपे शरारती बच्चे जल्दी से निकलते और फिर धड़ाम।
आवाज सुनकर मंदोदरी बूढ़ी घर से लपकते हुए आती और दरवाजे पर गंदगी बिखरा पाकर चिल्लाना शुरु कर देती। पर तब तक तो बच्चे रफूचक्कर हो गए रहते थे।इन शरारतों में मैं भी बच्चों के ग्रुप में शामिल रहता था।
होली के चार दिन पहले की बात है। विशेष तैयारी के तहत एक घड़ा मंगाया गया था। उसमें कीचड़ पानी और गोबर भर कर तैयार करने और सुबह-सुबह उसे मंदोदरी बूढ़ी के दरबाजे पर पटकने की जिम्मेदारी जिस बाल मण्डली को दी गई थी उसका लीडर मैं ही था। अब इतनी सुबह कीचड़ और गोबर कहाँ से लाया जाय ये समस्या थी। मुझे एक आईडिया आया। मैंने नाले का कीचड़ घड़े में डालकर उसे तैयार कर दिया। सुबह-सुबह मैं अपनी बाल मंडली को लेकर घड़े के साथ मंदोदरी बूढ़ी के दरवाजे की ओर चल पड़ा। समय यही सुबह के कोई पाँच सवा पाँच बजे थे। बड़ों ने इशारा किया और हम तीन लड़के आगे बढ़े। मेरे हाथ में घड़ा था जिसे पटक कर हम लोग को भागना था। दो लड़के मंदोदरी बूढ़ी की रेकी के लिए रह गए और मैं उसके दरवाजे पर पहुँचा। जब मैं घड़े को उसके दरवाजे पर पटकने ही वाला था कि सहसा मेरे हाथ रुक गए। दरवाजे पर ग्यारह बारह साल की एक मासूम लड़की बैठी हुई थी, सफेद फ्रॉक पहने हुए, मानो स्वर्ग से उतरकर कोई परी सीधे यहाँ पहुँची हो।
मैं घड़े के साथ वापस अपने ग्रुप में लौट गया। बड़ों ने हमें सलाह दी कि अभी अपने कार्यक्रम को स्थगित रखो। कुछ देर के बाद जब लड़की घर के अंदर चली जाएगी तो फिर घड़े को पटक आना।
हम लोग वहीं छुपकर इंतजार करने लगे। हमारी नजरें दरवाजे की ओर ही थी कि कब लड़की वहाँ से उठे और हम लोग घड़ा उसके दरवाजे पर पटके।
करीब पंद्रह मिनट हो गए और हम लोगों का सब्र जवाब देने लगा। हमें उकसाने वाले बड़ों ने कहा, अरे तुम लोगों का मुहँ तो रंगों से पुता है। भला कौन पहचान पाएगा ? और वैसे भी वह लड़की तो बाहर की लगती है, शायद कोई रिश्तेदार है। वह भला कैसे पहचान पाएगी ? अतः तुम लोग जाओ और घड़े को पटक कर आओ। पर वह लड़की तो दरवाजे की चौखट पर बैठी हुई है, कैसे पटकेगें वहाँ ? गन्दगी तो उसके शरीर पर भी पड़ेगी।
मेरी यह दलील सुनकर एक बड़े बुजुर्ग ने समझाया। जब तुम घड़ा पटकने लगोगे तो वह लड़की खुद ब खुद दरवाजे से भाग जाएगी और अगर कुछ कीचड़ पड़ भी गया तो भाई होली में तो सब माफ है।
हिम्मत करके हम तीन साथी आगे बढ़े। घड़ा अब भी मेरे हाथ में ही था। वहाँ पहुँचे तो लड़की अब भी वही बैठी थी। गोपाल ने मुझे साहस दिलाते हुए कहा- पटक भाई घड़ा, जल्दी पटको।
मैंने पटकने के लिए हाथ के घड़े को ऊपर किया, तभी मेरे हाथ रुक गए। उस लड़की की आंखों में कातर बिनती थी और हाथ जुड़े हुए, मानो वह कह रही हो- नहीं, मत पटको। गोपाल बार-बार मुझसे कह रहा था, पटक, भाई पटक।
और मुझे झिझकता देख गोपाल को गुस्सा आ गया और उसने अपने हाथ मे पकड़े डंडे को मेरे घड़े पर दे मारा। घड़ा फुट गया और मैं नाले के कीचड़ से नहा गया। मेरी मण्डली के सारे दोस्त और दूर खड़े बड़े बुजुर्ग मुझे नाली के कीचड़ में सराबोर देख ठठा के हँस पड़े। मैं खिसियानी बिल्ली बना गोपाल को घूरे जा रहा था और सब चिल्ला रहे थे- बुरा न मानो होली है।
"आप सबको सपरिवार होली की रंगभरी शुभकामनाएं"
किशोरी रमण
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Happy holi.
आप को और आपके परिवार को होली की हार्दिक शुभकामनाएं।