बचपन से ही हम लोग ये सुनते आ रहें हैं कि "सन्तोषम परमः सुखम" ,यानी संतोष ही परम सुख है।
अब सवाल उठता है कि आखिर संतोष है क्या ?
संतोष यानी जो आपके पास उपलब्ध है उसमें ही तृप्त होना या सुकून महसूस करना। जो है उसी में खुश रहना।
ज्ञानी और बुद्धिमान लोग जिन्हें संतोष है वे उन चीजों के लिए शोक नही करते या कामना नही करते जो उनके पास नहीं है बल्कि उन चीजों से ही खुश रहते हैं जो उनके पास है। वे ईश्वर को धन्यवाद देते हैं कि उन्होंने उसे संतोष दिया क्योंकि जिसके पास संतोष नामक धन आ गया उसके लिए तो बाकी धन धूल समान है।
मैं वैसे लोगों को भी जानता हूँ जो संतोष की आलोचना करते है और इसे आलस और अकर्मण्यता से जोड़ कर देखते है । वे इसे प्रगति में बाधक भी मानते है। उनका तर्क होता है कि अगर सभी इन्सान संतोषी हो जाय तो उनमें न मेहनत करने की इच्छा होगी और न ही कुछ नया और अच्छा करने का प्रयास ही वे करेगें। फिर तो ये दुनियाँ ठहर जाएगी और जिन्दगी बे-मजा हो जाएगी।
यहाँ यह स्पष्ट करना जरूरी है कि हम कायरता या अकर्मण्यता से उत्पन होने वाले संतोष की बात नही कर रहे हैं। हम उस संतोष की बात कर रहे है जो आत्मज्ञान से उत्पन्न होता है और जिसके सामने स्वर्ग भी तुच्छ है।
पर आज की स्थिति क्या है ? अगर हम अपने आप में और अपने आस पास झाँके तो पायेगें कि कोई भी संतुष्ट नही है। सौ रुपये पाने वाला हजार की कामना करता है और हज़ार पाने वाला लाख की। इस तरह हम सब एक अन्धी दौड़ में शामिल हैं और एक दूसरे को पछाड़ने का प्रयास कर रहे हैं। इस दौड़ में हमने दौड़ के सारे नियम, कानून, सिद्धान्त और शिष्टाचार को ताख पर रख दिया है।
हमने कबीर दास का दोहा अपनी किताबो में पढ़ा था कि, " साईं इतना दीजिए जा में कुटुम्ब समाये, मैँ भी भूखा ना रहूँ साधू न भूखा जाय"
सचमुच हमे बस इतने की ही जरूरत है क्योंकि जीने के लिए इतना ही काफी होता है। पर आज तो हमें केवल अपने लिए नही बल्कि अपने सात पीढ़ियों तक चलने लायक धन चाहिए।
हम इस सच्चाई को भूल जाते हैं कि पैसों और भौतिक संसाधनों से ही सुख मिलता तो केवल बैभवशाली लोग ही खुश रहते। खुशी थोड़े समय के लिए संतोष दे सकती है पर संतोष हमेशा के लिए खुशी देता है। इच्छाएँ दोधारी तलवार है, जब पूरी नही होती तो क्रोध बढ़ता है और जब पूरी होती है तो लोभ बढ़ता है। इस लिए जीवन की हर तरह की परिस्थिति में धैर्य और संतोष को बनाये रखना ही श्रेष्ठता है।
कहावत है कि अँधेरे में छाया, बुढ़ापे में काया और अंत समय मे माया किसी का साथ नही देती। अतः जो आपके पास है उसी में संतुष्ट रहें और जरूरत से अधिक की कामना न करें, यही संतोष है।
किशोरी रमण ।
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very nice....
सही कहा मित्र ! संतोष से बड़ा धन और संतोष से बड़ा सुख कोई और नहीं।
बहुत सुंदर विचार । संतुष्टि खुशी का आधार है । आपने सही लिखा।