दान तो हम सभी करते है पर एक सवाल बार बार उठता है कि सबसे बड़ा दान क्या है ? इस संबंध में भगवान बुद्ध की एक कथा प्रस्तुत है जो इस प्रश्न का सटीक उत्तर देता है।
एक बार की बात है कि भगवान बुद्ध राजगृह जो उस समय मगध की राजधानी थी से अन्यत्र प्रस्थान करने वाले थे। ज्योहीं लोगो को यह समाचार मिला, लोग उनसे मिलने के लिए उनके पास आने लगे। जो लोग भी उनके पास आते वे अपने सामर्थ के अनुसार कुछ भेंट भी दे रहे थे। भगवान बुद्ध अपने शिष्यों के साथ बैठे भेंट स्वीकार कर रहे थे। सम्राट बिम्बिसार ने उन्हें भूमि,वस्त्र, खाद्य पदार्थ इत्यदि प्रदान किये। नगर सेठों ने धन धान्य तथा स्वर्ण आभूषण उनके चरणों मे अर्पित किया। दान स्वीकार करने हेतु बुद्ध अपना दायाँ हाथ उठाकर अपनी स्वीकृति इंगित कर देते थे।
तभी एक बृद्धा वहाँ आई और बुद्ध को प्रणाम कर बोली भगवन, मैं बहुत निर्धन हूँ और आपको देने के लिए मेरे पास कुछ भी नही है। आज मुझे पेड़ से गिरा हुआ एक आम मिला था और मैं उसे खा ही रही थी कि आपके प्रस्थान करने का समाचार सुना। उस समय तक मैं आधा आम खा चुकी थी। मैं भी आपको कुछ अर्पित करना चाहती हूँ पर मेरे पास इस आधे खाये आम के अलावा और कुछ भी नहीं है। इसे ही मैं आपको भेंट करना चाहती हूँ। कृपया मेरी भेंट स्वीकार करें। वहाँ उपस्थित अपार जनसमुह , राजा-महाराजाओं, सेठों ने देखा कि भगवान बुद्ध अपने आसन से उठ कर नीचे आये और उन्होंने दोनों हाथ फैलाकर उस बृद्धा का आधा आम स्वीकार किया।
सम्राट बिम्बिसार ने चकित हो कर बुद्ध से पूछा-- भगवन, एक से बढ़कर एक अनुपम और अमूल्य उपहार को आपने केवल हाँथ हिलाकर ही स्वीकार कर लिए लेकिन इस बुढ़िया के जूठे आम को लेने के लिए तो आप आसन से उतर कर नीचे आ गए। इसमे ऐसी कौन सी विशेषता है ?
बुद्ध ने मुस्कुरा कर कहा, इस बृद्धा ने मुझे अपनी समस्त पूँजी दे दी है। आप लोगो ने मुझे जो कुछ दिया है वह तो आपकी सम्पति का कुछ अंश ही है और उसके बदले में अपने दान करने का अहंकार भी अपने मन मे रखा है। इस बृद्धा ने मेरे प्रति अपार प्रेम और श्रद्धा रखते हुए मुझे सर्वस्व अर्पित कर दिया फिर भी उसके मुहँ पर इतनी नम्रता और करुणा है।
यानी भगवान बुद्ध ने इस प्रश्न का उत्तर यूँ दिया कि दान वह नही होता जो अहंकार के साथ और दिखावे के लिए किया जाय। सबसे बड़ा दान तो वही होता है जो सच्ची श्रद्धा और भाव के साथ किया जाय।
किशोरी रमण
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बिल्कुल सही लिखा है । दान देने वाले को इसका अहम नही होना चाहिए ।
Very nice....
अति उत्तम कथा। बुढिया के दान को भगवान बुद्ध ने पूरे अन्तर्मन से स्वीकार किया।उठ कर चलकर उस बुढिया के पास पहुंचकर उस दान को स्वीकार करना भगवान बुद्ध की मनोदशा और महानता का परिचायक है। भगवान बुद्ध को ऐसे ही महान नहीं माना गया है।
:-- मोहन"मधुर"
दान अगर प्रेम के साथ स्नेह से किया जाय बन जाता है