अक्सर ही हमारे समाज मे यह विवाद का विषय होता है कि क्या पवित्र साध्य (लक्ष्य) को प्राप्त करने के लिए साधन (मार्ग) का भी पवित्र होना आवश्यक है ?
आज भी हमारे समाज मे बहुत से ऐसे लोग औऱ मान्यताएं हैं जिसके अनुसार लक्ष्य ही मुख्य है बाकी गौण।
जब हम लोग बच्चे थे तो सुल्ताना डाकू की कहानी सुनते थे जो सेठों औऱ अमीरों से धन लूटकर उसे गरीबो में बांट देता था।
साम्यवादी क्रांति के दौरान सम्पत्ति एवम संसाधनों का बंटवारा हथियारों के बल पर ही हुआ।
इसके उलट गाँधी जी का मानना था कि साध्य अपने आप मे चाहे जितना भी पवित्र हो , वह साधन को पवित्र नही बना सकता। इस संबंध में भगवान बुद्ध के बिचारो का उल्लेख प्रासंगिक है।
एक बार तथागत बुद्ध ने चर्चा के दौरान अपने शिष्यों से कहा कि हम जो कुछ भी ग्रहण करते हैं चाहे वह भोजन हो या विचार वह हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं। अगर ये शुद्ध नही होंगे तो हमारे विचार और कर्म भी शुद्ध नही होगा। उन्होंने अपने शिष्यों को एक कहानी सुनाई।
एक साधु जंगल मे रहता था। जो भी ब्यक्ति उनके पास जाता वह साधु उसके समस्या को पल भर में दूर कर देता। उसकी ख्याति दूर दूर तक फैल गई। बात राजा तक पहुँची। राजा अपने मंत्रियों के साथ साधु के पास पहुंचा और निवेदन किया। मैंने आपके बहुत चर्चे सुने है।आपके पास हर समस्या का समाधान है। मैं चाहता हूँ कि आप अपना समय जंगल मे बर्वाद न कर मेरे राज्य में चले।वहाँ मैं हर तरह की सुख सुबिधा उपलब्ध कराऊंगा। यहाँ तो आप ठीक से भोजन भी नहीं कर पाते और पेड़ो के फल खाकर रहते हैं।
पहले तो साधु ने उस राजा के प्रस्ताव को ठुकरा दिया,पर राजा नही माना और ज़बरदस्ती साधु को अपने राज्य में ले गया। वहाँ उसने उस साधु के लिए हर तरह के सुख सुविधा की ब्यवस्था की।
समय बीतता है और धीरे धीरे साधु का ब्यवहार बदलने लगता है। इस बात को वह साधु भी नही समझ पा रहा है कि उसे हो क्या रहा है। एक दिन मौका पाकर साधु वहाँ से भाग जाता है। मगर वह साधु अपने साथ कुछ कीमती सामान जिसमे रानी का हार ,हीरे औऱ मोहरे होते हैं भी लेता जाता है। राजा को साधु के भागने का पता चलता है तो अपने सैनिकों को भेजता है उसे ढूढने के लिए। साधु सैनिको के डर से और जंगल के भीतर चला जाता है। साधु चलते चलते थक जाता है और जंगल के बीचों बीच एक बृक्ष के नीचे बैठ जाता है। जैसे ही वह बृक्ष के नीचे बैठता है ऊपर से एक फल टूट कर उसके पास गिरता है। उसे जोरो की भूख लगी होती है जिसके कारण वह फल खा लेता है। वह फल एक औषधि होती है जोकि उसके पेट मे जाने के बाद उसे बीमार कर देती है। यदि बिना जरूरत के औषधि भी ली जाये तो वह भी हानिकारक होती है। वह साधु इतना अधिक बीमार होता है कि उसका शरीर सुख कर लकड़ी की तरह हो जाता है। अब उसको ख्याल आता है कि क्यो मै उस राजा के धन को लेकर भाग रहा हूँ। साधु को पश्यताप होता है और महल में जाकर सब धन राजा को लौटा देता है। राजा पूछता है कि जब तुम्हे वापस ही करना था तो इस धन को लेकर भागे ही क्यो ?
साधु सोंच कर बोला।क्षमा कीजिए राजन ,पिछले कुछ समय से मैंने आपका अन्न खाया है इसलिए मेरी सोंच आप जैसी हो गई थी।वह तो भला हो उस औषधि वाले पेड़ का जिसका फल खाकर मैं बीमार पड़ गया और आपका जितना भी खाया था वो सब बीमारी में निकल गया,और मुझे होश आया कि मैं कुछ गलत कर रहा हूँ।
वह साधु राजा से कहता है कि आपके पास जितना भी धन है वह आपने अपने परिश्रम से अर्जन नही किया है बल्कि इसे लूटमार कर और छीन झपट कर प्राप्त किया है।
फिर तथागत अपने शिष्यों से कहते है कि कुछ भी ग्रहण करने के पहले यह जरूर देखें कि जो आप ग्रहण करने जा रहे हैं वह कहाँ से आया है, लोभ से आया है,लालच से आया है या ईर्ष्या से आया है। आप जो भी ग्रहण करते है चाहे विचार हो या भोजन हो ये दोनों ही तय करते हैं कि आपकी सोंच और भविष्य कैसा होगा।
अंत मे मैं इस विमर्श का समापन स्वामी विवेकानंद जी के कथन से करना चाहूँगा कि हम जितना साध्य पर ध्यान देते है उससे अधिक साधन पर ध्यान देना चाहिए।
किशोरी रमण।
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very nice...
वाह, बहुत सुंदर प्रस्तुति । संतोष से बड़ा सुख कोई नहीं, सच है ।