जिस चमन में खिलते थे प्यार औरअदब के फूल उसी चमन को आज हमने श्मशान बना डाला है पोत दी है हमने अपने तहजीब के मुहँपे कालिख झूठऔर नफरत कोअपना हथियार बना डालाहै
अब नजर नही आती उम्मीद की कोई किरण
स्याह खत्म होना था पर कैद हो गया उजाला है
यहाँ बिखरें है नफरत और तबाही के मंज़र
कोई कैसे ये बताये की मुहँ पे लगा ताला है
हमें घरों से निकल अब सड़कों पर आना होगा
खामोशी छोड़ इस सच्चाई को बताना होगा
कि हमारा धर्म है इंसानियत इसे स्वीकार करें
खत्म होगी काली रात सुबह का इंतज़ार करें
किशोरी रमण
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वाह, बहुत सुंदर कविता।
Bahut hi sundar poem hai...