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  • Writer's pictureKishori Raman

"आजीविक" भारत का लुप्तप्राय प्राचीन सम्प्रदाय


आजीविक पंथ दुनिया की प्राचीन दर्शन परम्परा में भारतीय जमीन पर विकसित हुआ पहला नास्तिकवादी सम्प्रदाय था, जिसकी स्थापना मक्खलि गोशाल ने की थी। ईसा पूर्व पांचवी सदी में ( 560 ईशा पूर्व से 484 ईशा पूर्व तक) जैन तीर्थंकर महावीर और महात्मा बुद्ध के उभार के पहले यह भारतीय भूभाग पर प्रचलित सबसे प्रभावशाली दर्शन था। आजीविक नग्न रहते थे और परिव्राजकों की तरह घूमते थे। ईश्वर, पुनर्जन्म और कर्मकांड में इनका विश्वास नहीं था। इतिहासकारों ने आजीविक संप्रदाय को दार्शनिक-धार्मिक परंपरा में दुनिया का सबसे पहला संगठित संप्रदाय माना क्योंकि इससे पहले संगठित दर्शन परंपरा का साक्ष्य नहीं मिलता है। महावीर और बुद्ध जरूर गोशाल के समकालीन थे पर इन दोनों धर्मों का विकास एवं विस्तार आजीविक दर्शन के पश्चात ही हुआ। चूंकि आजीविक संप्रदाय का प्रमाणिक साहित्य उपलब्ध नहीं है इसलिए आजीविकों के दर्शन और इतिहास से संबंधित जानकारी बौद्ध एवं जैन साहित्य तथा मौर्यकालीन शिलालेखों पर निर्भर है। इस संप्रदाय का प्रभाव और प्रचलन पहली सदी तक संपूर्ण भारत में व्यापक तौर पर था। विद्वानों का मानना था कि बाद में विकसित और लोकप्रिय हुए जैन और बौद्ध धर्म भी आजीविक संप्रदाय के नास्तिक और भौतिकता वादी परंपरा की देन है। मकखलि गोशाल उम्र में महावीर से बड़े थे और उनसे दो वर्ष पहले प्रवज्जा ली थी। दोनों की मुलाक़ात नालंदा के तंतुवायशाला में हुई थी। छ साल एक साथ रहने के पश्चात दोनों में मतभेद हुआ और वे हमेशा के लिए एक दूसरे से अलग हो गए। गोशाल के समकालीनों में अन्य प्रमुख दार्शनिक थे- पूरण कसरूप, पकुध कच्चान, अजित केसकम्बली, संजय बेलटीपुत्त और गौतम बुद्ध। बाद में विकसित और लोकप्रिय हुए जैन और बौद्ध दर्शन दोनों इसके प्रभाव से मुक्त नही हो सके। चार्वाक और लोकायत दर्शन भी आजीविकों के नास्तिक दर्शन और भौतिकवादी स्कूल की देन है। बुद्ध और महावीर के प्रवल विरोधियों के रूप में आजीविकों के तीर्थंकर मकखलि गोशाल का उल्लेख जैन एवं बौद्ध ग्रंथों में मिलता है। गोशाल अपने को चौबीसवाँ तीर्थंकर कहते हैं। गोशाल से पहले के कई आजीविकों का उल्लेख मिलता है। जैन तथा बौद्ध ग्रंथों के आधार पर आजीविक के दर्शन को नियतिवाद, अकर्मण्यवाद या भाग्यवाद मान लेने की भूल लोग करते है। आजीविक लोग अपनी जीविका या पेशा करते हुए भ्रमण करते थे इसलिए इन्हें कर्म का विरोधी कहना उचित नही लगता। मध्यकाल के बहुत से नास्तिक संत जैसे कबीर व रैदास अपना जातिगत पेशा करते हुए ही अनीश्वरवाद का अलख जगाए हुए थे। चर्वाक भी इसी नास्तिकवादी और भौतिकवादी परंपरा के थे। कबीर साहब और सतगुरु रविदास इसी आजीविक परंपरा के संत थे जो प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था, जातीय आसमानता, कर्मकांड, अंधविश्वास और पुनर्जन्म को नकारते थे। पुनर्जन्म के बारे में कबीर कहते हैं कि " बहुरि हम काहू को आवहींगें" असल मे ये दर्शन नियतिवाद नही बल्कि प्रकृतिवाद है जैसा कि आज भी आदिवासी समुदाय मे देखने को मिलता है। आदिवासी दर्शन परम्परा यह मानता है कि सब कुछ प्रकृति-सृष्टि के अधीन है। मनुष्य अपने पराक्रम से उसमें कोई हेर-फेर करने की क्षमता नही रखता। नंद और मौर्य राजाओ के संरक्षण में आजीविकों का भरपूर विस्तार हुआ। अशोक के पिता बिन्दुसार आजीविक पंथ के अनुयायी थे। अशोक के शासन काल के बारहवें औऱ उन्नीसवें वर्ष में अभिलेखों को बराबर (जहानाबाद के पास) की गुफाओं में पाली लिपि में उकेरा गया जिसमे इन गुफाओं को आजीविकों को दान करने का जिक्र है। अशोक के पोते दसरथ के काल मे उकेरे गये शिलालेखों के अनुसार आजीविकों का मौर्य काल मे काफी विस्तार हुआ। कालांतर में उत्तर भारत मे यह सम्प्रदाय पहले बिलुप्त हुआ मगर दक्षिण भारत मे इनको पनाह मिली और इनका प्रभाव चौदहवीं सताब्दी तक रहा। आजीविक सम्प्रदाय का वर्णन अंग्रेजी लेखक ई एफ फोस्टर के अंग्रेजी उपन्यास ए पैसेज टू इंडिया (1924) और फिर अंग्रेज फिल्म निर्माता डेविड लीन (1984) ने अपनी फिल्म में किया है। उदयशंकर भट के नाटक शक-विजय (1949) में मकखलि गोशाल एक प्रमुख पात्र हैं। अश्वनी कुमार पंकज द्वारा लिखित मगही उपन्यास खाँटी किकटिया (2018) में गोशाल के जीवन दर्शन को विस्तार से बताया गया है। किशोरी रमण BE HAPPY....BE ACTIVE...BE FOCUSED...BE ALIVE If you enjoyed this post, please like , follow,share and comments. Please follow the blog on social media.link are on contact us page. www.merirachnaye.com




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