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  • Writer's pictureKishori Raman

लघु कथा


शिरीष का पेड़ समय के साथ सब कुछ बदलता है। जब पहले मैं अपने गाँव जाता था तो मुख्य सड़क से उतर कर कच्ची सड़क पर करीब एक किलोमीटर पैदल उबड़ खाबड़ रास्तो पर चलना होता था । तब पहले गाँव का बगीचा और फिर बथान आता था। अब तो सड़क पक्की हो गई है पर सड़क के एक तरफ नदी और दूसरी तरफ खेत आज भी है। इसी सड़क पर करीब आधा किलोमीटर आगे बढ़ने पर नदी के तरफ शमशान घाट मिलता है तो दूसरी ओर खेत की तरफ शिरीष का एक पेड़ । जब मैं छोटा था तो गाँव वालों से सुना करता था कि इस शिरीष के पेड़ पर किचिन (भूतनी) रहती है और अंधेरा हो जाने के बाद उस पेड़ के नीचे से गुजरने वालो से सवाल जवाब करती है । इसी अफ़बाह का नतीजा था कि अंधेरा हो जाने के बाद गाँव आने जाने वाले लोग इस सड़क वाले रास्ते को छोड़कर खेतो से होकर एक अन्य रास्ते से आते जाते थे। इस बार बहुत दिनों के बाद गांव आया था। मैंने पेड़ के पास से गुजरते हुए देखा कि पेड़ को जमीन से करीब दस फुट ऊपर से काट दिया गया है। टहनियां और पत्ते गायब, बस ठूठ ही खड़ा है। पता चला , भूतनी के डर से उस पेड़ को काटने का निर्णय लिया गया था पर हरे पेड़ काटने की मनाही है इस लिए इस तरह से बीच का रास्ता निकाला गया। मैं कुछ आगे बढ़ा तो मेरे आशा के अनुरूप पेड़ से कुछ दूर खेत के मेड़ पर एक ताड के पेड़ के नीचे प्रभु चाचा बैठे मिले। वे दलित समाज के गरीब खेतिहर मजदूर थे जो दूसरों के खेत मे मजदूरी करके और खेत बटाई पर लेकर अपना और परिवार का पेट भरते थे। उनकी बटाई वाली खेत नदी किनारे उसी शिरीष के पेड़ के पास ही थी।गर्मी के दिनों में वे खेत में ककरी और लालमी लगाते थे। बच्चे ककरी तोड़ न ले इसलिए वे अपना ज्यादातर समय उस पेड़ के नीचे ही बिताते थे। अब,उस पेड़ के कटने का सबसे ज्यादा मलाल उन्हें ही था। अक्सर ही मैंने उनको कहते हुए सुना था कि जिन लोगो का अंतिम संस्कार नही होता उनकी आत्मा भूत बनकर भटकती रहती है। वे ये भी कहते थे कि उस भूतनी से उनका सामना कई बार हुआ है पर कभी भी उसने उनका नुकसान नही पहुंचाया है अतः न तो उससे डरने की जरूरत है और न ही पेड़ को काटने की। बरसात और गर्मी ,इन दोनों मौसम में वे मेरे दलान के ओसारे में ही सोते थे क्योंकि उनके पास घर के नाम पर एक कमरे का कच्चा खपरैल मकान था जिसमे उनका बेटा बहु अपने बाल बच्चो के साथ रहता था। प्रभु सीधे साधे , ईमानदार और ईश्वर से डरने वाले ब्यक्ति थे।बूढ़े और कमजोर होने के बाबजूद खेतो में काम करते रहते थे। इधर व्यस्तता के कारण बहुत दिनों के बाद गाँव पहुंचा तो देखा कि वे बीमार है। जैसा की गाँव मे होता है गांव के बैद्य से देसी जड़ी बूटी की दवा लाकर दी गई। फायदा नही होने पर झाड़ फूँक का भी सहारा लिया गया। पर उनकी तबियत औऱ खराब होते गयी। पैसे तो थे नही की शहर के डॉक्टर से इलाज कराते। चूँकि उनके बचने की उम्मीद कम थी और उनके घर मे एक ही कमरा था अतः उनके खाट को गली में निकाल दिया गया था। लोग गली में आते जाते उनको देखते और उनके मरने का इंतज़ार करते। जब मैं वहाँ से गुजरा तो वही ठिठक कर उन्हें देखने लगा। वे एकटक आकाश को देखे जा रहे थे। पता नही कैसे उनकी नजर मुझ पर पड़ी और वे मुझे पहचानने का प्रयास करने लगे। सहसा उनकी आँखों मे चमक आई। लगा उन्होंने मुझे पहचान लिया हैं। फिर वे मुझसे कुछ कहने का प्रयास करने लगे।उनके मुँह से निकलने वाली कमजोर और टूटी आवाज को मैं समझ नही पा रहा था। मैंने उनके लड़के किशन को बुलाया। उसने उनकी बातों को सुनकर मुझे बताया कि वे कह रहे है कि वे इस दुनिया से जा रहे है अतः उनके मरने के बाद उनका दाह संस्कार करवा दीजियगा नही तो उनकी आत्मा को शांति नही मिलेगी। दूसरे दिन सुबह मैं शहर लौटने की तैयारी कर रहा था कि किशन के घर से रोने धोने की आवाज आने लगी । मैँ समझ गया कि प्रभु जी का देहांत हो गया है। मैं किशन के घर वाली गली में पहुँचा तो देखा कि उनके शव को खाट से उतार कर जमीन पर रख दिया गया है और घर वाले रो पिट रहे हैं। किशन वही बैठा अपने पिता के मृत शरीर को निहार रहा था। मैंने किशन से पूछा....अब क्या करोगे ? निराश स्वर में किशन बोला -भैया ,मेरे पास तो एक फूटी कौड़ी नही है। कुछ पैसे थे तो बैध जी के इलाज में खर्च हो गए। बस हमारे पास तो यही उपाय है कि नदी किनारे बालू में गड्ढा खोद कर इन्हें गाड़ दूँ। मैं सुनकर स्तब्ध रह गया। मुझे प्रभु जी की अंतिम बात याद थी कि उनका दाह संस्कार किया जाये। मैंने किशन के हाँथो में कुछ पैसे रखते हुए कहा, इस पैसे से लकड़ी और अन्य जरूरी सामान खरीदो। मेरी देखा-देखी दो अन्य लोगो ने भी किशन को कुछ पैसे दिए ताकि वो अपने पिता का दाह संस्कार कर सके। चुकि मेरा शहर लौटना आवश्यक था ,अतः मैँ शहर लौट गया। इस घटना के करीब सात-आठ महीने बाद मुझे अपने गाँव जाने का मौका मिला। गाँव के सड़क पर चलते हुए शिरीष के पेड़ के पास से गुजरा तो देखा कि नदी किनारे खेत की मेड़ पर किशन बैठा ककरी अगोर रहा है और उसकी नज़रें नदी के किनारे बालू के टीले को निहार रही हैं। मैँ वहाँ ठिठका। मुझे देखते ही किशन उठ खड़ा हुआ और मुझे प्रणाम किया। मैंने पूछा... बड़े ध्यान से उधर क्या देख रहे हो ? उसने नदी किनारे एक मिट्टी के टीले की तरफ इशारा किया। मैंने कहा...वह तो मिट्टी का टीला है। इसपर किशन बोला, उसी टीले में तो मैंने पिताजी को गाड़ा (दफनाया)है। मैँ चौक पड़ा, क्या कहते हो ? तुमने उनका दाह संस्कार नहीं किया ,बल्कि मिट्टी में गाड़ दिया। उसके आँखों से आँसू बहने लगे। मैँ खामोश रहा। कुछ देर के बाद किशन बोला, मेरे पास आपलोगो का दिया थोड़ा सा ही पैसा था। जाति और समाज वालो ने कहा कि पूड़ी मिठाई का भोज गोतिया समाज को नही दोगे तो हम लोग तुम्हे जाति से बहिष्कृत कर देंगें। उन्होंने ही सुझाया कि लकड़ी इत्यादि के लिये क्यो पैसा खर्च किया जाय ? इसे भोज पर खर्च करेगें। सबके कहने पर मैंने उनका दाह संस्कार न कर उन्हें मिट्टी में गाड़ दिया। मुझे लगता है कि उस शिरीष के पेड़ पर रहने वाले भूतनी की तरह ही मेरे पिताजी की आत्मा भी भटक रही है। इतना कह किशन फफक फफक कर रो पड़ा। मैंने उस ठूठ शिरीष के पेड़ की तरफ देखा। उसमे नई टहनियां और पत्ते निकल आये थे। किशोरी रमण। If you enjoyed this post, please share your thoughts through comments and encourage us to post more by liking our blog.


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