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  • Writer's pictureKishori Raman

प्रकृति पूजा का पर्व "सरहुल"


प्रकृति पूजा का पर्व सरहुल आज से शुरू हो गया है। झारखंड में सरहुल महापर्व बड़े धूम धाम से मनाया जाता है। राज्य के विभिन्न हिस्सों में बसने वाले आदिवासी समाज के लोग बड़े उत्साह के साथ इस पर्व में भाग लेते हैं। सरना स्थल को सजाया जाता है और वहाँ सरना का झंडा जो लाल और सफेद रंग में होता है लगाया जाता है। औरते सफेद में लाल पाड़ की साड़ी पहनती है और बालों में सरहुल का फूल लगाती है और मांदर की थाप पर परंपरागत आदिवासी नृत्य करती हैं। सफेद पवित्रता और शालीनता का प्रतीक होता है तो लाल रंग संघर्ष का प्रतीक होता है। सफेद रंग देवता सिंगाबोंगा का तथा लाल रंग बुरुबोंगा देवता का प्रतीक होता है। सरहुल दो शब्दों से मिलकर बना है सर और हुल। सर का मतलब है सरई या सखुआ का फूल। हुल का मतलब है क्रांति। इस तरह सखुआ फूलों की क्रांति के पर्व को सरहुल कहते हैं। आदिवासी समाज यह पर्व चैत्र महीने के शुक्ल तृतीया को मानता है और इसे नए साल के स्वागत का प्रतीक पर्व भी माना जाता है। इस साल यह पर्व 4 अप्रैल को मनाया जा रहा है। वैसे मुंडारी समाज मे इसे वहा पोरोब के रूप में मनाया जाता है। जब सखुआ की डाली पर फूल भर जाते है उसके बाद गाँव के लोग एक निश्चित तिथि निर्धारित कर इस पर्व को मानते है। सखुआ और सरजोम पेड़ के नीचे पूजा स्थल होता है जिसे सरना स्थल भी कहते हैं। मान्यता के अनुसार यह पर्व सूर्य और धरती के विवाह के तौर पर मनाया जाता है जिसे कुडुख या उरांव में " खेखेल बेंजा' कहते है। इसका प्रतिनिधित्व क्रमशः उरांव पुरोहित पहान (नयगस) और उसकी पत्नी(नगयेनी) करते हैं। इनका स्वांग प्रति वर्ष रचा जाता है। उरांव संस्कृति में सरहुल पूजा से पहले तक धरती को कुँवारी कन्या की भाँति देखा जाता है। उपवास और पूजा के बाद ही नए फल और सब्जियो का सेवन शुरू करते हैं। इसके पहले तक उनका सेवन वर्जित होता है। पूजा के बाद नौ तरह की सब्जियों को पका कर अनुष्ठान कर इन सब्जियो को खाना प्रारम्भ करते है। पूजा के पश्चात पहान प्रत्येक घर के बुजुर्ग या गृहिणियों को चावल एवं सरना फूल देते है तकि किसी प्रकार का संकट घर मे न आये। इस पूजा अनुष्ठान से एक दिन पहले प्रकृति पूजक उपवास रख कर केकड़ा और मछली पकड़ने जाते हैं।परंपरा है कि घर का नया दामाद या बेटा केकड़ा पकड़ने जाता है। पकड़े गए केकड़े को साल के पत्तो में लपेट कर चूल्हे के सामने टांग दिया जाता है। असाढ़ माह में बीज बोने के समय केकड़ा का चूर्ण बनाकर बीज के साथ खेत में बोया जाता है ताकि खूब उपज हो और घर मे समृद्धि आये। पूजा के पहले दिन शाम में जल भराई अनुष्ठान होता है। सरना स्थल में मिट्टी के दो घड़ो में पानी रखते है और दूसरे दिन पानी के स्तर की जाँच कर आने वाले समय मे वारिश का अनुमान लगाया जाता है। दो दिनों के अनुष्ठान में कई तरह के रस्म निभा कर पूजा सम्पन्न की जाती है। रीति रिवाज के अनुसार पहले सिंगाबोंगा देवता की पूजा की जाती है इसके बाद पूर्वजो और गाँव के देवी देवताओं की पूजा होती है। पूजा समाप्ति के पश्चात पहान को लोग नाचते गाते उसके घर तक लाते हैं। इस पर्व में सुख समृद्धि के लिये मुर्गा की बलि देने की परंपरा भी है। ग्राम देवता के लिए रंगवा मुर्गा अर्पित किया जाता हैं। पहान देवता से बुरी आत्मा को गाँव से दूर भगाने की कामना करते हैं। पूजा समाप्त होने के दूसरे दिन गाँव के पहान घर घर जाकर फूल खोंसी करते हैं ताकि उस घर और समाज मे खुशी बनी रहे। आईये, हम सब भी प्रकृति के महत्व को समझे। इसे पूजे और सरंक्षित करे। सरहुल पर्व की आप सबको बधाई और शुभकामना। किशोरी रमण। BE HAPPY....BE ACTIVE...BE FOCUSED...BE ALIVE If you enjoyed this post, please like , follow,share and comments. Please follow the blog on social media.link are on contact us page. www.merirachnaye.com




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