
ज़िन्दगी और मौत एक सिक्के के दो पहलू हैं
दोनों ही इस सृष्टि की खूबसूरत ऋचाएँ है
ज़िन्दगी बीत गयी इस पहेली को सुलझाने में
पर आज तक भी इसे सुलझा नही पायें हैं
ज़िन्दगी तो मौत के बिना अधूरी होती है
दोनों जब मिलते हैं तभी ये पूरी होती है
यहाँ किसी को शिकायत होती है मौत से
तो किसी के लिए जीना मजबूरी होती है
पहले कुछ दिनों तक अपनो की याद रुलाती है
फिर नेम-प्लेट से नाम की स्याही उतर जाती है
यही है ज़िन्दगी और यही है यहाँ का दस्तूर
घर के किसी कोने में उनकी तस्वीर टंग जाती है
सोंचा था,समय आनेदो,अपने कल को पुकारूँगा
जिससे कभी जीत न सका उसे मैं ललकारूँगा
कल सिकंदर को मैंने जब मिट्टी में दफन देखा
तब समझ आया, यहाँ सब हारे है,मैं भी हारूँगा
किशोरी रमण
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ज़िन्दगी की सच्चाई से रूबरू कराता यह कविता । भावनात्मक प्रस्तुति।
भावनाओं के बहाव को गतिमान करती हुई कविता।