एक परेशान और निराश ब्यक्ति एक बौद्ध भिक्षु से कहता है- कि मेरे भीतर बहुत आलस्य है इसलिए मैं जो करना चाहता हूँ उसे कर नही पाता। गुरुदेव मैं क्या करूँ ? कृपया आप मेरा मार्गदर्शन करें।
वह बौद्ध भिक्षु पहले तो मुस्कुराते है फिर उस व्यक्ति से पूछते हैं कि क्या तुम्हे पक्का विश्वास है कि तुम्हारे अंदर आलस्य है ?
वह व्यक्ति कहता है, जी गुरुदेव, केवल मैं ही नही पूरे गाँव के लोग यही कहते है कि मैं आलसी हूँ।
इसपर वह बौद्ध भिक्षु पूछते हैं कि क्या तुम्हारे पास इस बात का कोई प्रमाण है कि तुम आलसी व्यक्ति हो ?
वह व्यक्ति कहता है, जी गुरुदेव। मैं जानता तो हूँ कि ब्यायाम करना स्वास्थ के लिए अच्छा है पर मैं चाह कर भी नही कर पाता क्योंकि मेरा आलस्य मुझे सुबह जल्दी उठने नही देता।
बौद्ध भिक्षु कहते हैं, अच्छा, तो तुम ऐसे आलस्य से परेशान हो ?
वह व्यक्ति कहता है - जी गुरूदेव।
बौद्ध भिक्षु पुनः कहते हैं कि क्या तुम जानते हो कि आलस्य क्या होता है ?
वह व्यक्ति कहता है कि मैं यह तो नही जानता कि आलस्य का अर्थ क्या है पर यह जो भी है बहुत बुरा है।
बौद्ध भिक्षु कहते है कि सबसे पहले तुम ये समझो कि जो भी चीज प्राकृतिक रूप से मनुष्य के अंदर है उसका कोई न कोई उपयोग है। वह बुरा या अच्छा नही है।
आलस्य एक भाव है,एक विचार है। इसे जाने अनजाने में हम खुद ही पैदा करते हैं।
वह व्यक्ति पूछता है, परन्तु वह कैसे गुरुदेव ?
भिक्षु बताते है कि आलस्य पैदा होने के दो कारण है, पहला शारीरिक और दूसरा मानसिक।
जब हम अपने शरीर को ऐसा भोजन देते है जिसके भीतर कोई जीवंतता नही है तब हमारे शरीर के अंदर आलस्य पैदा होता है। हम शरीर को जिस तरह की ऊर्जा देते है यह उसी तरह का वर्ताव करता है। शरीर के स्तर पर हमारे भीतर आलस्य का दूसरा कारण है गलत तरह से बैठना, गलत तरह से सोना और गलत तरह से चलना। हम इस बात पर कभी ध्यान नही देते है कि हमारे बैठने, लेटने और सोने की स्थिति सही है भी या नही ?
अगर तुम तथागत बुद्ध को देखो तो पाओगे कि जब वो बैठते है तो उनकी रीढ़ की हड्डी एकदम सीधी होती है। जब वो लेटते है तो उनके शरीर के किसी अंग पर कोई दवाब नही होता और जब वे चलते है तो उनके दोनों कदमो के बीच एक तालमेल नजर आता है। यह जरूरी नही की कोई बुद्ध से कुछ सुनकर ही समझे। अगर कोई समझना चाहता है तो उन्हें ध्यान से देखकर भी बहुत कुछ समझा जा सकता है। शारीरिक स्तर पर आलस्य का एक कारण है सुबह जल्दी न उठना ।
वह व्यक्ति कहता है, हाँ गुरुदेव, सुबह मैं जल्दी उठ ही नही पाता हूँ।
बौद्ध भिक्षु मुस्कुराते है और कहते है कि तुम सुबह तभी जल्दी उठ सकते हो जब रात को सोने का सही समय निर्धारित कर लोगे। प्रत्येक व्यक्ति को अनुशासन का पालन करना चाहिए क्योंकि अनुशाशन हमारे जीवन मे संतुलन लाता है। ज्यादातर लोग जीवन मे अनुशाशन को बुरा समझते है क्योंकि उन्हे लगता है कि अनुशाशन उन्हें बांधता है जबकि सच्चाई तो ये है कि अनुशाशन हमें बांधता नही बल्कि मुक्त करता है।
अब वह व्यक्ति पूछता है कि शुरुआत कहाँ से करे ? सही तरह से भोजन करने से, सही तरह से लेटने, बैठने या चलने से या सुबह जल्दी उठने से ?
इस पर बौद्ध भिक्षु कहते हैं की शुरुआत अभी से करो। तुम जो भी कर रहे हो उसे ध्यान से करो। पहले तुम मन के आलस्य को समझो। वैसे ज्यादातर स्थितियों में मन शरीर के कारण ही आलस्य पैदा करता है। मानसिक आलस्य का पहला कारण है, हमारे पुराने गलत विश्वास। हमें लगता है कि पिछली बार भी हम नहीं कर पाए थे इसीलिए इस बार भी नहीं होगा। हम इस बात को नहीं देखते हैं कि पिछली बार में और इस बार में बहुत अंतर है। अब मानसिक स्तर पर हम वह नहीं हैं जो पहले थे। अब सब कुछ बदल चुका है। जब हम अपने आप को काबिल नहीं समझते हैं तो आलस्य हम पर हावी हो जाता है। दूसरा कारण है छोटी सोच वाले और आलसी लोगों का साथ करना। कभी-कभी ऐसा होता है कि आलस्य हमारे अंदर नहीं होता पर वह दूसरे लोगों से हमारे भीतर आ जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि हम आलसी लोगों की संगत करते हैं।
वह व्यक्ति कहता है - जी गुरुदेव, यह बात तो सत्य है, और मैंने भी इसे अनुभव किया है ।
बौद्ध भिक्षु कहते हैं, इसका कारण है मन का स्पष्ट ना होना। मान लो तुम एक वन में खो जाते हो और शाम होने वाली है। तुम्हें यह नहीं पता कि तुम्हारा घर किस दिशा में है। ऐसी स्थिति में क्या तुम आलसी बन कर वहीं लेट जाओगे या घर की तलाश में निकल पड़ोगे।
वह व्यक्ति कहता है कि मैं घर की तलाश में निकल पडूँगा।
बौद्ध भिक्षु पूछते हैं कि प्रयास करने के बाद भी तुम्हें तुम्हारे घर का रास्ता नहीं मिला तब तुम क्या करोगे ?
वह व्यक्ति कहता है कि मैं फिर भी तलाश में लगा रहूँगा क्योंकि मेरे पास उसके अलावा और कोई विकल्प ही नहीं होगा।
बौद्ध भिक्षु कहते हैं कि मनुष्य के मन को आलस्य तभी पकड़ता है जब आदमी के पास कई विकल्प होते हैं। अगर किसी के पास एक ही विकल्प है उसका मन पूरी तरह से स्पष्ट होगा। अगर तुम अभी व्यायाम नहीं कर पाते हो तो उसका कारण तुम्हारी नजर का स्पष्ट ना होना है। तुम अभी भविष्य में होने वाले रोगों को नहीं देख पा रहे हो। तुम अभी उन रोगों से होने वाली पीड़ा को महसूस नहीं कर पा रहे हो।
आलस्य का चौथा कारण है कि किसी काम को करने की कोई बड़ी वजह का न होना। मान लो तुम एक रास्ते से जा रहे हो और चलते चलते थक गए हो। तुम्हारा और चलने का मन अब नहीं कर रहा है। तुम्हें आलस्य आ रहा है। तभी तुम देखते हो कि एक शेर तुम्हारी तरफ भागा चला रहा है। ऐसी परिस्थिति में भी तुम या तुम्हारा आलस्य तुम्हें भागने से रोक पाएगा ? नहीं ना ? तो इस बात को समझो। आलस्य तुम्हें उसी काम को करने से रोक सकता है जिसे करने की तुम्हारे पास कोई बड़ी वजह नहीं हो।
अब वो व्यक्ति हाथ जोड़कर कहता है धन्यवाद गुरुदेव, अब मुझे आलस्य का सारा खेल समझ में आ गया है।
इस पर बौद्ध भिक्षु कहते हैं - एक बात याद रखना। जहाँ स्पष्टता है या काम करने की कोई बड़ी वजह है वहाँ आलस्य हो ही नहीं सकता।
किशोरी रमण
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Kishori Raman
very nice.....
आलस्य की अच्छी समझ देने वाली कहानी।
बहुत सुंदर कहानी।