
बहुत पुरानी बात है। नगर के बाहर नदी के किनारे एक निर्वस्त्र जैन मुनि ठहरे हुए थे। नगर के राजा की सभी रानियों ने उन्हें भोजन कराने की सोंची। उनके खाने के लिए कई तरह के पकवान बना वे जाने को हुई तो देखा कि नदी उफान पर है। पार जाए तो कैसे ? राजा ने कहा कि नदी से कहना कि यदि मुनि जीवन भर के उपासे हैं तो हमे मार्ग दे दो। मार्ग मिल जाएगा। रानियों ने यही किया और आश्चर्य कि नदी ने मार्ग दे दिया। मुनि के पास जाकर उन्हें सब पकवान खिला, जब वे लौटने को हुई तो फिर मुश्किल में पड़ गई। आते वक्त तो नदी ने मार्ग दे दिया था, पर अब तो मुनि खा चुके है और उपासे नही रहे। अब भला नदी से क्या कहेंगे ? उन रानियों ने मुनि से ही पूछ लिया तो मुनि ने कहा कि वही कहना, मार्ग मिल जाएगा। रानियों ने लौटते समय नदी से वही कहा और इस बार भी मार्ग मिल गया। आश्चर्य चकित रानियों ने राजा के पास आकर प्रश्न किया कि जब यहां से गई थी तो चमत्कार हुआ पर लौटी तो पहले वाला चमत्कार छोटा पड़ गया। सब हमारे सामने खा लेने पर भी मुनि उपासे कैसे हुए ? राजा ने कहा, भोजन से उपवास का कोई सम्बंध ही नही है। असल में भोजन करने की तृष्णा एक बात है और भोजन करने की जरूरत बिलकुल दूसरी बात है। भोजन करने की तृष्णा भोजन करने पर भी हो सकती है और भोजन न करने पर भी तृष्णा नही हो सकती। यहां भेद तृष्णा और आवश्कता का है। जब तृष्णा की डोर टूट जाती है तो केवल जरूरत रह जाती है शरीर की तो आदमी उपवासा है। उस मुनि ने खुद भोजन नहीं किया वह केवल शरीर ने किया।
शरीर की जो जरूरत है वो आवश्यकता है लेकिन उससे ज्यादा की कामना तृष्णा है इसे जैन मुनि की कहानी से अच्छे से समझा जा सकता है।
किशोरी रमण
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बहुत सुंदर।
Very nice.